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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 129
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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ए꣡न्द्र꣢ सान꣣सि꣢ꣳ र꣣यि꣢ꣳ स꣣जि꣡त्वा꣢नꣳ सदा꣣स꣡ह꣢म् । व꣡र्षि꣢ष्ठमू꣣त꣡ये꣢ भर ॥१२९॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । इ꣣न्द्र । सानसि꣢म् । र꣣यि꣢म् । स꣣जि꣡त्वा꣢नम् । स꣣ । जि꣡त्वा꣢꣯नम् । स꣣दास꣡ह꣢म् । स꣣दा । स꣡ह꣢꣯म् । व꣡र्षि꣢꣯ष्ठम् । ऊ꣣त꣡ये꣢ । भ꣣र । ॥१२९॥


स्वर रहित मन्त्र

एन्द्र सानसिꣳ रयिꣳ सजित्वानꣳ सदासहम् । वर्षिष्ठमूतये भर ॥१२९॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । इन्द्र । सानसिम् । रयिम् । सजित्वानम् । स । जित्वानम् । सदासहम् । सदा । सहम् । वर्षिष्ठम् । ऊतये । भर । ॥१२९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 129
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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पदार्थ -

हे (इन्द्र)=परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (रयिं आभर) = हमें धन प्राप्त कराइए। कैसा धन? १. (सानसिम्)=सम्भजनीय धन। धन को मैं अकेला ही न खा लूँ। मैं उसका पञ्चयज्ञों में विनियोग करके यज्ञशेष को खानेवाला बनूँ। ('केवलाघो भवति केवलादी') अकेला खानेवाला पापी होता है - मैं इस तत्त्व को न भूलूँ। २.( सजित्वानम्) = उस धन को, जो मुझे सदा विजयशील बनाता है, जिस धन को पाकर मैं इन्द्रियों का दास नहीं बन जाता। ३. (सदासहम्) = जो धन सदा कामादि वासनाओं का अभिभव करनेवाला है। जिस धन से मैं लोभाभिभूत हो सदा मारा-मारा नहीं फिरता । ४. (वर्षिष्ठम्) = जो धन सदा अतिवृद्ध है और खूब बरसनेवाला है। धन की मात्रा भी मेरे पास पर्याप्त हो और मैं उसका खूब दान करनेवाला बनूँ। बस ऐसा ही धन तो (ऊतये) = हमारी रक्षा के लिए होता है।

इन उल्लिखित गुणों से युक्त धन नाश का कारण न बनकर कल्याण का साधक होता है। इस स्थिति में मैं 'मधुच्छन्दा' - उत्तम इच्छाओंवाला ‘वैश्वामित्रः' - सभी का मित्र होता हूँ।

भावार्थ -

हम सदा औरों के साथ बाँटकर धन का उपभोग करें। बादल जल जुटाते-जुटाते काला होता जाता है, बरसता है तो सफेद हो जाता है। हम भी बरसने पर ही शुभ्र होंगे।

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