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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1293
ऋषिः - राहूगण आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
7
स꣢ प꣣वि꣡त्रे꣢ विचक्ष꣣णो꣡ हरि꣢꣯रर्षति धर्ण꣣सिः꣢ । अ꣣भि꣢꣫ योनिं꣣ क꣡नि꣢क्रदत् ॥१२९३॥
स्वर सहित पद पाठसः । प꣣वि꣡त्रे꣢ । वि꣣चक्षणः꣢ । वि꣣ । चक्षणः꣢ । ह꣡रिः꣢꣯ । अ꣣र्षति । ध꣣र्णसिः꣢ । अ꣣भि꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । क꣡नि꣢꣯क्रदत् ॥१२९३॥
स्वर रहित मन्त्र
स पवित्रे विचक्षणो हरिरर्षति धर्णसिः । अभि योनिं कनिक्रदत् ॥१२९३॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । पवित्रे । विचक्षणः । वि । चक्षणः । हरिः । अर्षति । धर्णसिः । अभि । योनिम् । कनिक्रदत् ॥१२९३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1293
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - वि-चक्षण-विशिष्ट उद्देश्यवाला
पदार्थ -
(स:) = वह राहूगण १. (पवित्रे) = उस प्रभु में स्थित हुआ-हुआ २. (विचक्षणः) = एक विशेष दृष्टिकोण वाला, अर्थात् जीवन-यात्रा में एक विशेष लक्ष्य से चलनेवाला, जिस लक्ष्य का गतमन्त्र में वर्णन है ‘सुत से देवयु' तक पहुँचने के ध्येयवाला ३. (हरिः) = आर्त की आर्ति का हरण करनेवाला ४. (धर्णसिः) = सबके धारण के स्वभाववाला ५. (कनिक्रदत्) = प्रभु के नामों का उच्चारण करता हुआ (योनिम् अभि) = ब्रह्माण्ड के मूलकारण उस प्रभु की ओर (अर्षति) = गति करता है ।
भावार्थ -
हम जीवन-यात्रा में एक विशेष लक्ष्य से आगे बढ़ें।
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