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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1306
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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त्वं꣡ वरु꣢꣯ण उ꣣त꣢ मि꣣त्रो꣡ अ꣢ग्ने꣣ त्वां꣡ व꣢र्धन्ति म꣣ति꣢भि꣣र्व꣡सि꣢ष्ठाः । त्वे꣡ वसु꣢꣯ सुषण꣣ना꣡नि꣢ सन्तु यू꣣यं꣡ पा꣢त स्व꣣स्ति꣢भिः꣣ स꣡दा꣢ नः ॥१३०६॥

स्वर सहित पद पाठ

त्वम् । व꣡रु꣢꣯णः । उ꣣त꣢ । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । अ꣣ग्ने । त्वा꣢म् । व꣣र्धन्ति । मति꣡भिः꣢ । व꣡सि꣢꣯ष्ठाः । त्वे꣢꣯ । इ꣢ति । व꣡सु꣢꣯ । सु꣣षणना꣡नि꣢ । सु꣣ । सनना꣡नि꣢ । स꣣न्तु । यूय꣢म् । पा꣣त । स्वस्ति꣡भिः꣢ । सु꣣ । अस्ति꣡भिः꣢ । स꣡दा꣢꣯ । नः ॥१३०६॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वं वरुण उत मित्रो अग्ने त्वां वर्धन्ति मतिभिर्वसिष्ठाः । त्वे वसु सुषणनानि सन्तु यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥१३०६॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । वरुणः । उत । मित्रः । मि । त्रः । अग्ने । त्वाम् । वर्धन्ति । मतिभिः । वसिष्ठाः । त्वे । इति । वसु । सुषणनानि । सु । सननानि । सन्तु । यूयम् । पात । स्वस्तिभिः । सु । अस्तिभिः । सदा । नः ॥१३०६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1306
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! १. (त्वम्) = आप (वरुणः) = सब बुराइयों का निवारण करनेवाले होने से वरणीय हैं, २. (उत) = और (मित्र:) = [प्रमीतेः त्रायते] आप पाप व मृत्यु से बचानेवाले हैं। ३. (वसिष्ठाः) = शरीर में उत्तम निवासवाले वशी लोग (मतिभिः) = ज्ञानों के द्वारा (त्वां वर्धन्ति) = आपको बढ़ाते हैं, आपकी भावना को अपने में अधिक और अधिक जगाते हैं । ४. हे प्रभो! (त्वे वसु) = आपमें रहनेवाले ये उत्तम धन (सुषणनानि) = उत्तम ढंग से संविभाग के योग्य (सन्तु) = हों । हम कभी धनों को अपना कमाया हुआ समझकर विलास में उनका व्यय न करने लग जाएँ । हमारी यह भावना बनी रहे कि धन तो सब आपके हैं । इस भावना से युक्त होकर हम धनों का सदा उचित संविभागपूर्वक ही सेवन करें । ५. (यूयम्) = हे वरुण, मित्र और अग्ने ! आप सब (स्वस्तिभिः) = उत्तम जीवन स्थितियों के द्वारा

[सु+अस्ति] (सदा) = हमेशा (नः पात) = हमारी रक्षा करें । 'वरुण' हमारे रोगों का निवारण करके हमें नीरोग व स्वस्थ बनाये । 'मित्र' हमें पाप से बचाकर द्वेषों को दूर करके स्नेहमय हृदयवाला बनाये । और 'अग्नि' सब प्रकार से हमारी उन्नति का साधक हो ।

भावार्थ -

हमारा जीवन 'वरुण' के ध्यान से नीरोग बनें, 'मित्र' का ध्यान हमें निष्पाप करे और 'अग्नि' हमें मार्ग पर आगे और आगे बढ़ाए ।

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