Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1314
ऋषिः - सप्तर्षयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
4

नू꣣नं꣡ पु꣢ना꣣नो꣡ऽवि꣢भिः꣣ प꣡रि꣢ स्र꣣वा꣡द꣢ब्धः सुर꣣भि꣡न्त꣢रः । सु꣣ते꣡ चि꣢त्वा꣣प्सु꣡ म꣢दामो꣣ अ꣡न्ध꣢सा श्री꣣ण꣢न्तो꣣ गो꣢भि꣣रु꣡त्त꣢रम् ॥१३१४॥

स्वर सहित पद पाठ

नू꣢नम् । पु꣣नानः꣢ । अ꣡वि꣢꣯भिः । प꣡रि꣢꣯ । स्र꣣व । अ꣡द꣢꣯ब्धः । अ । द꣣ब्धः । सुरभि꣡न्त꣢रः । सु꣣ । रभि꣡न्त꣢रः । सु꣣ते꣢ । चि꣣त् । त्वा । अप्सु꣢ । म꣣दामः । अ꣡न्ध꣢꣯सा । श्री꣣ण꣡न्तः꣢ । गो꣡भिः꣢꣯ । उ꣡त्त꣢꣯रम् ॥१३१४॥


स्वर रहित मन्त्र

नूनं पुनानोऽविभिः परि स्रवादब्धः सुरभिन्तरः । सुते चित्वाप्सु मदामो अन्धसा श्रीणन्तो गोभिरुत्तरम् ॥१३१४॥


स्वर रहित पद पाठ

नूनम् । पुनानः । अविभिः । परि । स्रव । अदब्धः । अ । दब्धः । सुरभिन्तरः । सु । रभिन्तरः । सुते । चित् । त्वा । अप्सु । मदामः । अन्धसा । श्रीणन्तः । गोभिः । उत्तरम् ॥१३१४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1314
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 9; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment

पदार्थ -

‘सप्तर्षयः'—[सप्त च ते ऋषयः सप् समवाये] उत्तम सोम का अपने शरीर में ही समवाय करनेवाले अतएव तत्त्वद्रष्टा लोग इस मन्त्र के ऋषि हैं। इनका महान् कार्य उत्पन्न सोम की शरीर में रक्षा करना ही है। इन (अविभिः) = रक्षकों से (नूनम्) = निश्चयपूर्वक (पुनान:) = पवित्र किया जाता हुआ हे सोम! तू (परिस्रव) = शरीर में चारों ओर परिस्रुत हो । (अदब्धः) = तू अहिंसित है। शरीर में तेरे व्याप्त होने पर शरीर में किसी प्रकार के रोग का आक्रमण नहीं होता। (सुरभिन्तरः) = शरीर को तू अत्यन्त सुगन्धवाला बना देता है । जब शरीर रोग व मलों से युक्त होता है तब शरीर से दुर्गन्ध आने लगती है। पूर्ण स्वस्थ शरीर यह दुर्गन्ध नहीं आती।

(सुते चित्) = तेरे उत्पन्न होने पर ही १. (त्वा) = तेरे द्वारा (अप्सु) = कर्मों में (मदामः) = हम एक आनन्द का अनुभव करते हैं । निर्वीर्यता में अकर्मण्यता होती है- क्रियाओं में स्फूर्ति का अभाव होता है । हम २. (अन्धसा) = अत्यन्त ध्यान देने योग्य ध्यान से रक्षा करने योग्य तेरे द्वारा ही (श्रीणन्तः) = अपना परिपाक करते हैं और ३. (गोभिः) - इन्द्रियों के द्वारा (उत्तरम्) = ऊपर और ऊपर उठते हैं। सोमरक्षा से हम इन्द्रियों के द्वारा उत्तम कार्य करते हुए ऊपर उठते हैं । गोभिः = शब्द मुख्यरूप से ज्ञानेन्द्रियों का वाचक है। ज्ञानेन्द्रियों से उन्नति करते हुए हम ऋषि बन पाते हैं। सोम के अभाव में ये ज्ञानेन्द्रियाँ क्षीणशक्ति रहती हैं ।

भावार्थ -

हम सोमरक्षा द्वारा अपने को पवित्र, अहिंसित व स्वस्थ बनाएँ । सोमरक्षा ही हमें क्रियाओं में आनन्द लेनेवाला, परिपक्व तथा ज्ञानी बनाये ।

इस भाष्य को एडिट करें
Top