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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1317
ऋषिः - वसुर्भारद्वाजः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
2
प꣣र्ज꣡न्यः꣢ पि꣣ता꣡ म꣢हि꣣ष꣡स्य꣢ प꣣र्णि꣢नो꣣ ना꣡भा꣢ पृथि꣣व्या꣢ गि꣣रि꣢षु꣣ क्ष꣡यं꣢ दधे । स्व꣡सा꣢र꣣ आ꣡पो꣢ अ꣣भि꣢꣫ गा उ꣣दा꣡स꣢र꣣न्त्सं꣡ ग्राव꣢꣯भिर्वसते वी꣣ते꣡ अ꣢ध्व꣣रे꣢ ॥१३१७॥
स्वर सहित पद पाठप꣣र्ज꣡न्यः꣢ । पि꣣ता꣢ । म꣣हिष꣡स्य꣢ । प꣣र्णि꣡नः꣢ । ना꣡भा꣢꣯ । पृ꣣थिव्याः꣢ । गि꣣रि꣡षु꣢ । क्ष꣡य꣢꣯म् । द꣣धे । स्व꣡सा꣢꣯रः । आ꣡पः꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । गाः । उ꣣दा꣡स꣢रन् । उ꣡त् । आ꣡स꣢꣯रन् । सम् । ग्रा꣡व꣢꣯भिः । व꣣सते । वीते꣢ । अ꣣ध्वरे꣢ ॥१३१७॥
स्वर रहित मन्त्र
पर्जन्यः पिता महिषस्य पर्णिनो नाभा पृथिव्या गिरिषु क्षयं दधे । स्वसार आपो अभि गा उदासरन्त्सं ग्रावभिर्वसते वीते अध्वरे ॥१३१७॥
स्वर रहित पद पाठ
पर्जन्यः । पिता । महिषस्य । पर्णिनः । नाभा । पृथिव्याः । गिरिषु । क्षयम् । दधे । स्वसारः । आपः । अभि । गाः । उदासरन् । उत् । आसरन् । सम् । ग्रावभिः । वसते । वीते । अध्वरे ॥१३१७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1317
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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विषय - गिरियों में निवास, स्तोताओं के साथ संवाद
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'वसु भारद्वाज' है— उत्तम निवासवाला, अपने में शक्ति को भरनेवाला । 'यह ऐसा कैसे बन पाया? इस प्रश्न का उत्तर निम्न है— १. यह सदा प्रातः- सायं प्रभु की पूजा करता है [मह पूजायाम् ], पूजा करने के कारण 'महिष' कहलाता है। प्रयत्न करके वासनाओं के आक्रमण से अपनी रक्षा करता है, अतः ‘पर्णी' कहलाता है । इस (महिषस्य पर्णिन:) = प्रभुपूजक आत्मरक्षा करनेवाले का (पिता) = रक्षक (पर्जन्यः) = परातृप्ति का जनक प्रभु होता है, अर्थात् प्रभु-स्मरण इसे सदा वासना से सुरक्षित रखता है। २. वासनाओं से सुरक्षित होकर यह (पृथिव्या नाभा) = [अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः] यज्ञों में (क्षयं दधे) = निवास करता है, अर्थात् यज्ञमय जीवन बिताता है । ३. इसलिए भी यह वासनाओं से बचा रहता है कि (गिरिषु) = गुरुओं में, उपदेष्टाओं में निवास करनेवाला होता है। ४. सदा अज्ञानान्धकार-निवारक गुरुओं के चरणों में उपस्थित होने से यह विलास के मार्ग पर नहीं जाता और इसके (आप:) = रेत:कण [आप:=रेतः] (स्वसारः) = आत्मतत्त्व की ओर ले जानेवाले (अभिगाः) = वेदवाणियों का लक्ष्य करके (उदासरन्) = ऊर्ध्वगतिवाले होते हैं । ५. ये वसु (ग्रावभिः) = स्तोताओं के साथ वीते-कान्त अध्वरे=हिंसाशून्य कर्मों में संवसते-उत्तम प्रकार से रहते हैं। सदा यज्ञमय कर्मों के करनेवाले होते हैं ।
भावार्थ -
हम उल्लिखित बातों को अपने जीवन में लाकर 'वसु भारद्वाज' बनें ।
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