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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1325
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
त्व꣡ꣳ सु꣢ष्वा꣣णो꣡ अद्रि꣢꣯भिर꣣꣬भ्य꣢꣯र्ष꣣ क꣡नि꣢क्रदत् । द्यु꣣म꣢न्त꣣ꣳ शु꣢ष्म꣣मा꣡ भ꣢र ॥१३२५॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । सु꣣ष्वाणः꣢ । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । अभि꣢ । अ꣣र्ष । क꣡नि꣢꣯क्रदत् । द्यु꣣म꣡न्त꣢म् । शु꣡ष्म꣢꣯म् । आ । भ꣣र ॥१३२५॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वꣳ सुष्वाणो अद्रिभिरभ्यर्ष कनिक्रदत् । द्युमन्तꣳ शुष्ममा भर ॥१३२५॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । सुष्वाणः । अद्रिभिः । अ । द्रिभिः । अभि । अर्ष । कनिक्रदत् । द्युमन्तम् । शुष्मम् । आ । भर ॥१३२५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1325
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - ज्योतिर्मय शक्ति
पदार्थ -
'भारद्वाज बार्हस्पत्य' कैसे बनता है ? इस प्रश्न का उत्तर प्रभु इन शब्दों में देते हैं—१. (त्वं अद्रिभिः) =[अद्रयः आदरणीयाः – नि० ९.८] आदरणीय माता-पिता व आचार्यों से तथा विद्वान् अतिथियों से (सुष्वाण:) = सदा उत्तम प्रेरणा प्राप्त करनेवाला हो । वस्तुत: जिस भी व्यक्ति को माता की उत्तम प्रेरणा प्राप्त होती है वही अपने जीवन को आदर्श ज्ञान व बल से युक्त कर पाता है । २. (कनिक्रदत्) = निरन्तर उस प्रभु का आह्वान करते हुए तू (अभ्यर्ष) = समन्तात् कार्यों में गतिवाला हो । इस प्रकार उत्तम प्रेरणा को प्राप्त होकर प्रभु स्मरणपूर्वक क्रियाओं में लगे रहने से तू ३. (द्युमन्तं शुष्मम्) = ज्योतिर्मय बल को अपने अन्दर (आभर) = समन्तात् भर ले । ज्योति को भरकर तू बार्हस्पत्य बनता है तो शक्ति सञ्चार के द्वारा भरद्वाज होता है ।
भावार्थ -
बड़ों से प्राप्त प्रेरणा व प्रभु-स्मरण हमें 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' बनानेवाले हों ।