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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1330
ऋषिः - अम्बरीषो वार्षागिर ऋजिश्वा भारद्वाजश्च देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
1

द्वि꣢꣫र्यं पञ्च꣣ स्व꣡य꣢शस꣣ꣳ स꣡खा꣢यो꣣ अ꣡द्रि꣢सꣳहतम् । प्रि꣣य꣡मिन्द्र꣢꣯स्य꣣ का꣡म्यं꣢ प्रस्ना꣣प꣡य꣢न्त ऊ꣣र्म꣡यः꣢ ॥१३३०॥

स्वर सहित पद पाठ

द्विः꣢ । यम् । प꣡ञ्च꣢꣯ । स्व꣡य꣢꣯शसम् । स्व । य꣣शसम् । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । अ꣡द्रि꣢सꣳहतम् । अ꣡द्रि꣢꣯ । स꣣ꣳहतम् । प्रिय꣣म् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । का꣡म्य꣢꣯म् । प्र꣣स्नाप꣡य꣢न्ते । प्र꣣ । स्नाप꣡य꣢न्ते । ऊ꣣र्म꣡यः꣢ ॥१३३०॥


स्वर रहित मन्त्र

द्विर्यं पञ्च स्वयशसꣳ सखायो अद्रिसꣳहतम् । प्रियमिन्द्रस्य काम्यं प्रस्नापयन्त ऊर्मयः ॥१३३०॥


स्वर रहित पद पाठ

द्विः । यम् । पञ्च । स्वयशसम् । स्व । यशसम् । सखायः । स । खायः । अद्रिसꣳहतम् । अद्रि । सꣳहतम् । प्रियम् । इन्द्रस्य । काम्यम् । प्रस्नापयन्ते । प्र । स्नापयन्ते । ऊर्मयः ॥१३३०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1330
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

हमारे शरीर में हमारी इन्द्रियाँ वश में हों तो हमारी मित्र हैं, वश में न हों तो ये हमारी शत्रु हैं । ये (पञ्च) = पाँच (ऊर्मय:) = ज्ञान का प्रकाश [lights] देनेवाली इन्द्रियाँ (प्रस्नापयन्तः) = शुद्ध कर डालती हैं। (सखायः) = ये उसकी मित्रभूत होती हैं। जैसे संसार में एक सच्चा सखा अपने मित्र के जीवन को पाप से निवारित करके तथा पुण्य से जोड़कर पवित्र कर डालाता है, उसी प्रकार ये इन्द्रियाँ भी इस मनुष्य को शुद्ध करने के कारण उसकी सखा हैं ।

ये (यम्) = जिसको शुद्ध कर डालती हैं, वह कौन है ?

१. (स्वयशसम्) = यह आत्मा के सौन्दर्यवाला [beauty] होता है, आत्मा की ओर झुकाव [Favour, Partiality] - वाला होता है, आत्मा को ही अपनी सम्पत्ति [wealth] समझता है, आत्मिक भोजन [food] को महत्त्व देता है [यहाँ यश शब्द के वेद में आनेवाले चारों अर्थों को लेकर 'स्वयशसं' शब्द का व्याख्यान कितना सुन्दर हो गया है ? ]

२. (द्विः) = दिन में कम-से-कम दो बार प्रात:- सायं (अद्रिसंहतम्)= उस न विदारण के योग्य अथवा आदरणीय प्रभु से अपने को जोड़नेवाला है । प्रातः-सायं प्रभु का ध्यान करनेवाला ही जितेन्द्रिय बन पाता है, उसी की इन्द्रियाँ उसकी मित्र होती हैं और उसके जीवन को प्रकाश से उज्ज्वल बनाती चलती हैं।

३. (प्रियम्)-जो सदा प्रसन्नता का अनुभव करता है, आत्मिक भोजन से तृप्ति का लाभ करता है [प्रीञ्-तर्पणे]।

४. (इन्द्रस्य काम्यम्) = जो उस प्रभु की प्राप्ति की कामनावाला है। जिसके जीवन की मुख्य कामना प्रभु-प्राप्ति है ।

भावार्थ -

हम प्रात:-सायं प्रभु ध्यान करते हुए प्रभु को ही अपना काम्य बनाएँ, जिससे इन्द्रियाँ हमारी मित्र हों और ज्ञान के प्रकाश से हमें शुद्ध करती चलें।
 

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