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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1330
ऋषिः - अम्बरीषो वार्षागिर ऋजिश्वा भारद्वाजश्च
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
32
द्वि꣢꣫र्यं पञ्च꣣ स्व꣡य꣢शस꣣ꣳ स꣡खा꣢यो꣣ अ꣡द्रि꣢सꣳहतम् । प्रि꣣य꣡मिन्द्र꣢꣯स्य꣣ का꣡म्यं꣢ प्रस्ना꣣प꣡य꣢न्त ऊ꣣र्म꣡यः꣢ ॥१३३०॥
स्वर सहित पद पाठद्विः꣢ । यम् । प꣡ञ्च꣢꣯ । स्व꣡य꣢꣯शसम् । स्व । य꣣शसम् । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । अ꣡द्रि꣢सꣳहतम् । अ꣡द्रि꣢꣯ । स꣣ꣳहतम् । प्रिय꣣म् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । का꣡म्य꣢꣯म् । प्र꣣स्नाप꣡य꣢न्ते । प्र꣣ । स्नाप꣡य꣢न्ते । ऊ꣣र्म꣡यः꣢ ॥१३३०॥
स्वर रहित मन्त्र
द्विर्यं पञ्च स्वयशसꣳ सखायो अद्रिसꣳहतम् । प्रियमिन्द्रस्य काम्यं प्रस्नापयन्त ऊर्मयः ॥१३३०॥
स्वर रहित पद पाठ
द्विः । यम् । पञ्च । स्वयशसम् । स्व । यशसम् । सखायः । स । खायः । अद्रिसꣳहतम् । अद्रि । सꣳहतम् । प्रियम् । इन्द्रस्य । काम्यम् । प्रस्नापयन्ते । प्र । स्नापयन्ते । ऊर्मयः ॥१३३०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1330
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में फिर गुरु-शिष्य का विषय है।
पदार्थ
(स्वयशसम्) अपनी कीर्ति से युक्त, (अद्रिसंहतम्) पर्वत के समान दृढ अङ्गोंवाले, (इन्द्रस्य प्रियम्) कुलपति आचार्य के प्रिय, (काम्यम्) अन्यों से भी चाहे जानेवाले (यम्) जिस विद्यार्थी को (द्विः पञ्च) दो पंजे अर्थात् दस (सखायः) सहयोगी विद्वान् गुरु लोग (ऊर्मयः) जल की तरङ्गों के समान होकर (प्र स्नापयन्ते) ज्ञान-नदी में स्नान कराते हैं, वह प्रशस्त होता है ॥२॥ यहाँ ‘ऊर्मयः’ में लुप्तोपमालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ
चार वेद और छह वेदाङ्ग ये दस विद्याएँ हैं। प्रत्येक विद्या के लिए एक-एक गुरु हो तो दस गुरु हो जाते हैं। वेदाङ्गों में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष ये छह विद्याएँ ग्रहण करनी चाहिएँ, उनके प्रतिपादक वर्तमान ग्रन्थ नहीं, क्योंकि मनुष्यप्रणीत उन उत्तरवर्ती ग्रन्थों का सङ्केत वेदों में नहीं हो सकता ॥२॥
पदार्थ
(त्यं-अद्रिसंहतम्) जिस श्लोककृत्४ स्तुतिकर्ताओं से सङ्गत—स्तुतिकर्ताओं को प्राप्त होने वाले (स्वयशसम्) स्वाधार यशोरूप५ (इन्द्रस्य प्रियं काम्यं) आत्मा को प्रिय कमनीय सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा को (द्विः पञ्च सखायः) दश प्राण—इन्द्रिय शक्तियाँ६ मनन श्रवण स्तवन आदि (ऊर्मयः) ऊर्मिरूप उन्नत हुई (प्रस्नापयन्त) प्रख्यात कराते हैं—साक्षात् कराते हैं॥२॥
विशेष
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विषय
प्रातः-सायं प्रभु- चिन्तन
पदार्थ
हमारे शरीर में हमारी इन्द्रियाँ वश में हों तो हमारी मित्र हैं, वश में न हों तो ये हमारी शत्रु हैं । ये (पञ्च) = पाँच (ऊर्मय:) = ज्ञान का प्रकाश [lights] देनेवाली इन्द्रियाँ (प्रस्नापयन्तः) = शुद्ध कर डालती हैं। (सखायः) = ये उसकी मित्रभूत होती हैं। जैसे संसार में एक सच्चा सखा अपने मित्र के जीवन को पाप से निवारित करके तथा पुण्य से जोड़कर पवित्र कर डालाता है, उसी प्रकार ये इन्द्रियाँ भी इस मनुष्य को शुद्ध करने के कारण उसकी सखा हैं ।
ये (यम्) = जिसको शुद्ध कर डालती हैं, वह कौन है ?
१. (स्वयशसम्) = यह आत्मा के सौन्दर्यवाला [beauty] होता है, आत्मा की ओर झुकाव [Favour, Partiality] - वाला होता है, आत्मा को ही अपनी सम्पत्ति [wealth] समझता है, आत्मिक भोजन [food] को महत्त्व देता है [यहाँ यश शब्द के वेद में आनेवाले चारों अर्थों को लेकर 'स्वयशसं' शब्द का व्याख्यान कितना सुन्दर हो गया है ? ]
२. (द्विः) = दिन में कम-से-कम दो बार प्रात:- सायं (अद्रिसंहतम्)= उस न विदारण के योग्य अथवा आदरणीय प्रभु से अपने को जोड़नेवाला है । प्रातः-सायं प्रभु का ध्यान करनेवाला ही जितेन्द्रिय बन पाता है, उसी की इन्द्रियाँ उसकी मित्र होती हैं और उसके जीवन को प्रकाश से उज्ज्वल बनाती चलती हैं।
३. (प्रियम्)-जो सदा प्रसन्नता का अनुभव करता है, आत्मिक भोजन से तृप्ति का लाभ करता है [प्रीञ्-तर्पणे]।
४. (इन्द्रस्य काम्यम्) = जो उस प्रभु की प्राप्ति की कामनावाला है। जिसके जीवन की मुख्य कामना प्रभु-प्राप्ति है ।
भावार्थ
हम प्रात:-सायं प्रभु ध्यान करते हुए प्रभु को ही अपना काम्य बनाएँ, जिससे इन्द्रियाँ हमारी मित्र हों और ज्ञान के प्रकाश से हमें शुद्ध करती चलें।
विषय
missing
भावार्थ
(यं) जिस मुख्य प्राणरूप, सबके प्रेरक, सोम को (द्विः पंचच) दोगुना पांच अर्थात् दश (सखायः) समान नाम वाले इन्द्रिय नामक प्राण (ऊर्मयः) ऊर्ध्वगति होकर (स्वयशसं) अपने कीर्तिस्वरूप (अद्रिसंहतम्) पर्वत के समान अभेद्य बल से युक्त (इन्द्रस्य) अन्तरात्मा के अति कामना योग्य (प्रियम्) अपने प्यारे को (प्रस्नापयन्तः) उत्तम रीति से स्नान कराते हैं. सुखरूप जलों से मानो उसका अभिषेक करते हैं उसका साक्षात् ज्ञान करो।
टिप्पणी
‘स्वयशसं स्वसारः’ ‘प्रस्नापयन्त्यूर्मिणम्’।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनर्गुरुशिष्यविषयमाह।
पदार्थः
(स्वयशसम्) स्वकीयकीर्तिम्, (अद्रिसंहतम्) पर्वतवद् दृढाङ्गम्, (इन्द्रस्य प्रियम्) कुलपतेः वत्सलम्, (काम्यम्) अन्येषामपि अभिलषणीयम् (यम्) यं विद्यार्थिनम् (द्विः पञ्च) द्विवारं पञ्च, दशेत्यर्थः (सखायः) सहयोगिनो विद्वांसो गुरवः (ऊर्मयः) जलतरङ्गा इव भूत्वा (प्रस्नापयन्ते) ज्ञाननद्यां स्नानं कारयन्ति, स प्रशस्यो भवतीति वाक्यपूर्तिर्विधेया ॥२॥ ऊर्मय इवेति लुप्तोपमालङ्कारः ॥२॥
भावार्थः
चत्वारो वेदाः षड्वेदाङ्गानि चेति दश विद्याः। उपवेदा उपाङ्गानि चात्रैवान्तर्भवन्ति। प्रतिविद्यमेकैको गुरुरिति दश गुरवो भवन्ति। वेदाङ्गैश्च शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति षड् मूलविद्या ग्राह्या न तु तत्तत्प्रतिपादका वर्तमानग्रन्थाः, उत्तरवर्तिनां तेषां मनुष्यप्रणीतानां ग्रन्थानां वेदे सङ्केतासम्भवात् ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Know the soul, whom, bright with native splendour, indivisible like a rock, loved by God, all-loving, the ten companions, with upward motion, bathe in joys.
Meaning
Soma, dearest love of the soul, innately glorious, the glory intensified by spiritual light, vibrant spirit rolling in the consciousness whom ten psychic powers of mind and sense perceive, conceive and exalt, that spirit we cherish and adore. (Rg. 9-98-6)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (त्यम् अद्रिसंहतम्) જે શ્લોકકૃત્ સ્તુતિકર્તાઓથી સંગત-સ્તુતિકર્તાઓને પ્રાપ્ત થનાર (स्वयशसम्) સ્વ આધાર યશોરૂપને (इन्द्रस्य प्रियं काम्यम्) આત્માને પ્રિય કમનીય સોમ-શાંત સ્વરૂપ પરમાત્માને (द्विः पञ्च सखायः) દશ પ્રાણ, ઇન્દ્રિય શક્તિઓ, મનન, શ્રવણ, સ્તવન આદિ (ऊर्मयः) ઊર્મિરૂપ ઉન્નત બનીને (प्रस्नापयन्त) પ્રખ્યાત કરાવે છે-સાક્ષાત્ કરાવે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
चार वेद व सहा वेदांग या दहा विद्या आहेत. प्रत्येक विद्येसाठी एक एक गुरू असल्यास दहा गुरू होतात. वेदांगामध्ये शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद व ज्योतिष्य या सहा विद्या ग्रहण केल्या पाहिजेत. वर्तमान ग्रंथ त्यांचे प्रतिपादक नाहीत, कारण मनुष्यप्रणीत त्या उत्तरवर्ती ग्रंथांचा संकेत वेदांमध्ये असू शकत नाही. ॥२॥
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