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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1331
    ऋषिः - अम्बरीषो वार्षागिर ऋजिश्वा भारद्वाजश्च देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
    26

    इ꣡न्द्रा꣢य꣣ सोम꣣ पा꣡त꣢वे वृत्र꣣घ्ने꣡ परि꣢꣯ षिच्यसे । न꣡रे꣢ च꣣ द꣡क्षि꣢णावते वी꣣रा꣡य꣢ सदना꣣स꣡दे꣢ ॥१३३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सो꣣म । पा꣡त꣢꣯वे । वृ꣡त्र꣢꣯घ्ने । वृ꣣त्र । घ्ने꣢ । प꣡रि꣢꣯ । सि꣡च्यसे । न꣡रे꣢꣯ । च꣣ । द꣡क्षि꣢꣯णावते । वी꣣रा꣡य꣢ । स꣣दनास꣡दे꣢ । स꣣दन । स꣡दे꣢꣯ ॥१३३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्राय सोम पातवे वृत्रघ्ने परि षिच्यसे । नरे च दक्षिणावते वीराय सदनासदे ॥१३३१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्राय । सोम । पातवे । वृत्रघ्ने । वृत्र । घ्ने । परि । सिच्यसे । नरे । च । दक्षिणावते । वीराय । सदनासदे । सदन । सदे ॥१३३१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1331
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में गुरुजन कह रहे हैं।

    पदार्थ

    हे (सोम) ज्ञानरस ! तू (वृत्रघ्ने) व्रतपालन द्वारा दोषों को विनष्ट करनेवाले, (नरे) पुरुषार्थी, (दक्षिणावते) गुरुदक्षिणा देनेवाले, (वीराय) शूरवीर, (सदनासदे) गुरुकुलरूप सदन में निवास करनेवाले (इन्द्राय) बिजली के समान तीव्र बुद्धिवाले विद्यार्थी के (पातवे) पान के लिए (परिषिच्यसे) प्रवाहित किया जा रहा है ॥३॥

    भावार्थ

    विद्यार्थियों को चाहिए कि वे स्वेच्छा से व्रतपालक, तपस्वी, शूर, आश्रम-पद्धति से गुरुकुल में ही निवास करनेवाले और समावर्तन के समय गुरुदक्षिणा देनेवाले हों ॥३॥

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    पदार्थ

    (सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (वृत्रघ्ने) पाप नष्ट कर चुका जो उस निष्पाप७ (दक्षिणावते) कामवान्—कामना वाले८ (वीराय) कर्मशील—स्वतन्त्र कर्म करने वाले (सदनासदे) शरीर या हृदय सदन में बैठने वाले (नरे) मुमुक्षु९ (इन्द्राय) आत्मा के (पातवे) पान—धारण करने को (परिषिच्यसे) प्रार्थित किया जाता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    वृत्रघ्न इन्द्र के लिए

    पदार्थ

    (सोम) = हे सोम–वीर्यशक्ते! तू (इन्द्राय पातवे) = इन्द्र के पान के लिए होता है - जितेन्द्रिय पुरुष ही तेरा पान करता है। सोम को शरीर में ही व्याप्त करने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य जितेन्द्रिय बने। हे सोम! तू (परिषिच्यसे) = शरीर में ही चारों ओर सिक्त होता है । किनके लिए? १. (वृत्रघ्ने) = ज्ञान की आवरणभूत कामादि वासनाओं को नष्ट करनेवाले के लिए, अर्थात् जो मनुष्य कामादि वासनाओं को नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील होता है उसके शरीर में यह सोम सम्पूर्ण रुधिर में व्याप्त होकर रहता है । २. (नरे च) = और [नृ= मनुष्य] उस मनुष्य के लिए जो कि अपने को आगे और आगे ले-चलने का निश्चय करता है । यह आगे बढ़ने की भावना भी सोम-सुरक्षा में सहायक होती है। ३. (दक्षिणावते) = दानशील मनुष्य के लिए यह सोम परिषिक्त होता है, अर्थात् दान की वृत्ति भी सोमरक्षा में सहायक है। यह वृत्ति मनुष्य को व्यसनों से बचाती है। व्यसनों से बचाने के द्वारा सोम-रक्षण में साधन बनती है । ४. (वीराय) = वीर पुरुष के लिए । वीर पुरुष अपनी वीरता को नष्ट न होने देने के लिए सोमरक्षण में प्रवृत्त होता है । ५. (सदनासदे) = सदन में बैठनेवाले के लिए। यहाँ सदन शब्द ‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत' इस मन्त्रभाग की 'सीदत' क्रिया का ध्यान करते हुए सब घरवालों के मिलकर बैठने के स्थान अर्थात् यज्ञभूमि के लिए आया है। ‘इस यज्ञभूमि में बैठने का स्वभाव है जिसका' उसके लिए यह सोमरक्षण सम्भव होता है । ।

    यह सोमरक्षण करनेवाला व्यक्ति सदा सरल मार्ग से चलता बनता है। यह ऋजिश्वा सोमरक्षण के लिए निम्न बातें करता

    १. जितेन्द्रिय बनने का प्रयत्न करता है [इन्द्राय ] 
    २. वासनाओं को विनष्ट करता है [वृत्रघ्ने] 
    ३. आगे बढ़ने की वृत्ति को धारण करता है [नरे]
    ४. दानशील बनता है [दक्षिणावते] ५. वीर बनता है [वीराय ] 
    ६. यज्ञशील बनता है [सदनासदे] ये बातें सोमरक्षण के होने पर हममें फूलती-फलती हैं ।

    भावार्थ

    हम सोमरक्षण के द्वारा वीर बनें ।

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    भावार्थ

    हे (सोम) सबके प्रेरक बल ! आनन्दमय ! (पातवे) तेरे पान या पालन करने हारे, (वृत्रघ्ने) अज्ञान रूप विघ्न के विनाशक (दक्षिणावते) क्रिया शक्ति से सम्पन्न (सदनासदे) प्रत्येक आश्रयस्थान, जीवनरूप यज्ञ के गृह अर्थात् शरीर में स्थिर रूप से वर्त्तमान (वीराय) शक्तिशाली (नरे) सबके नेता, प्रवर्त्तक, (इन्द्राय) आत्मा के निमित्त व (परि-सिच्यसे) प्रवाहित किया जाता है।

    टिप्पणी

    ‘देवाय सदनासदे’ इति च ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ गुरवो ब्रुवन्ति।

    पदार्थः

    हे (सोम) ज्ञानरस, त्वम् (वृत्रघ्ने) व्रतपालनेन दोषविनाशकाय, (नरे) नराय, पुरुषार्थिने। [अत्र चतुर्थ्येकवचनस्य ‘सुपां सुलुक्०’। अ० ७।१।३९ इति शे आदेशः।] (दक्षिणावते) गुरुदक्षिणायुक्ताय, (वीराय) शूराय, (सदनासदे) गुरुकुलसदननिवासिने (इन्द्राय२) विद्युद्वत्तीव्रबुद्धये विद्यार्थिने (पातवे) पानाय (परिषिच्यसे) परिक्षार्यसे ॥३॥

    भावार्थः

    विद्यार्थिभिः स्वेच्छया व्रतपालकैस्तपस्विभिः शूरैराश्रमपद्धत्या गुरुकुल एव निवासिभिः समावर्तनकाले गुरुदक्षिणाप्रदायकैश्च भाव्यम् ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O power, thou art scattered for the soul, thy fosterer, the annihilator of ignorance, the lord of activity, the permanent dweller in the body, the master of strength, and the leader of all !

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    Meaning

    O Soma spirit of light and ecstasy of grace, you are adored and served for the souls experience of divinity, for the man of charity and the brilliant sage on the vedi of yajnic service so that the demon of evil, darkness and ignorance may be expelled from the soul of humanity and destroyed. (Rg. 9-98-10)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सोम) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (वृत्रघ्ने) પાપ નષ્ટ ચૂકેલ જે તે નિષ્પાપ (दक्षिणावते) કામવાન્ - કામનાવાળા (वीराय) કર્મશીલ-સ્વતંત્ર કર્મ કરનારા (सदनासदे) શરીર અર્થાત્ હૃદયગૃહમાં બેસનાર (नरे) મુમુક્ષુ (इन्द्राय) આત્માને (पातवे) પાન-ધારણ કરવા માટે (परिषिच्यसे) પ્રાર્થિત કરવામાં આવે છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्यार्थी स्वेच्छेने व्रतपालक, तपस्वी, शूर आश्रम पद्धतीने गुरुकुलामध्ये निवास करणारे व समावर्तनाच्या वेळी गुरुदक्षिणा देणारे असावेत. ॥३॥

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