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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1356
ऋषिः - प्रगाथः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
त्व꣡मी꣢शिषे सु꣣ता꣢ना꣣मि꣢न्द्र꣣ त्व꣡मसु꣢꣯तानाम् । त्व꣢꣫ꣳ राजा꣣ ज꣡ना꣢नाम् ॥१३५६॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । ई꣣शिषे । सुता꣡ना꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯ । त्वम् । अ꣡सु꣢꣯तानाम् । अ । सु꣣तानाम् । त्व꣢म् । रा꣡जा꣢꣯ । ज꣡ना꣢꣯नाम् ॥१३५६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमीशिषे सुतानामिन्द्र त्वमसुतानाम् । त्वꣳ राजा जनानाम् ॥१३५६॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । ईशिषे । सुतानाम् । इन्द्र । त्वम् । असुतानाम् । अ । सुतानाम् । त्वम् । राजा । जनानाम् ॥१३५६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1356
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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विषय - सुतों व असुतों का ईश
पदार्थ -
प्रगाथ प्रभु को उत्तर देता है— हे (इन्द्र) = परमैश्वर्य के स्वामिन्! मुझे कंजूस क्यों होना? यह धन मेरा थोड़े ही है (त्वम्) = आप ही (सुतानाम्) = उत्पन्न किये गये धनों के (ईशिषे) = ईश हैं, स्वामी हैं। हे इन्द्र ! (त्वम्) = आप ही (आसुतानाम्) = न उत्पन्न किये गये धनों के प्रभु हैं। जिन धनों को लोग 'रत्नाकरों' [समुद्रों] से अथवा वसुन्धरा के आकरों [mines] से निकाल लाये हैं, वे धन वस्तुत: आपके ही तो हैं । जिनको समुद्रों व आकरों से हम नहीं निकाल सके वे भी आपके हैं ही । निकाले हुए धन ‘सुत' हैं, न निकाले हुए 'असुत' हैं । हे प्रभो ! (त्वम्) = आप ही (जनानाम्) = सब प्राणियों के (राजा) = जीवनों को नियमित कर रहे हैं । मैं तो वस्तुत: कुछ हूँ ही नहीं, यह सब आपकी ही माया है, आपका ही खेल है, मुझे तो आपने निमित्तमात्र बनाया है, अतः इस कृपणता को आपने ही कुचलना है।
भावार्थ -
कृपणता को कुचलने के लिए मैं इस तथ्य को स्मरण करूँ कि सब 'सुत' व 'असुत' धनों के स्वामी प्रभु ही हैं ।
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