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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1356
ऋषिः - प्रगाथः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
37
त्व꣡मी꣢शिषे सु꣣ता꣢ना꣣मि꣢न्द्र꣣ त्व꣡मसु꣢꣯तानाम् । त्व꣢꣫ꣳ राजा꣣ ज꣡ना꣢नाम् ॥१३५६॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । ई꣣शिषे । सुता꣡ना꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯ । त्वम् । अ꣡सु꣢꣯तानाम् । अ । सु꣣तानाम् । त्व꣢म् । रा꣡जा꣢꣯ । ज꣡ना꣢꣯नाम् ॥१३५६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमीशिषे सुतानामिन्द्र त्वमसुतानाम् । त्वꣳ राजा जनानाम् ॥१३५६॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । ईशिषे । सुतानाम् । इन्द्र । त्वम् । असुतानाम् । अ । सुतानाम् । त्वम् । राजा । जनानाम् ॥१३५६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1356
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अब जीवात्मा परमात्मा की स्तुति करता है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) जगत् के रचयिता परमात्मन् ! (त्वम्) आप (सुतानाम्) उत्पन्न प्राणियों और पदार्थों के (ईशिषे) स्वमी हो, (त्वम्) आप ही (असुतानाम्) जो अभी उत्पन्न नहीं हुए, किन्तु भविष्य में उत्पन्न होनेवाले हैं, उन प्राणियों और पदार्थों के भी स्वामी हो। (त्वम्) आप ही (जनानाम्) मनुष्यों के (राजा) राजा हो ॥३॥
भावार्थ
जीवात्मा के अन्दर जो महान् शक्ति निहित है, वह परमात्मा की ही दी हुई है, इस कारण परमात्मा की स्तुति से यहाँ जीव अपने अभिमान को दूर कर रहा है ॥३॥ यहाँ उपास्य-उपासक का सम्बन्ध वर्णित होने से, जीवात्मा को उद्बोधन होने से और विद्वान् उपासकों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ ग्यारहवें अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(इन्द्र त्वम्) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू (सुतानाम्-ईशिषे) उपासनारस सम्पादकों का स्वामी हो रहा है (त्वम्-असुतानाम्) तू उपासनारस-रहितों—नास्तिकों का भी स्वामी हो रहा है (त्वं राजा जनानाम्) तू राजा है जायमान प्राणियों का भोगप्रदानार्थ४ भोग यथायोग्य सब देता है, यह तेरी महती दया है॥३॥
विशेष
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विषय
सुतों व असुतों का ईश
पदार्थ
प्रगाथ प्रभु को उत्तर देता है— हे (इन्द्र) = परमैश्वर्य के स्वामिन्! मुझे कंजूस क्यों होना? यह धन मेरा थोड़े ही है (त्वम्) = आप ही (सुतानाम्) = उत्पन्न किये गये धनों के (ईशिषे) = ईश हैं, स्वामी हैं। हे इन्द्र ! (त्वम्) = आप ही (आसुतानाम्) = न उत्पन्न किये गये धनों के प्रभु हैं। जिन धनों को लोग 'रत्नाकरों' [समुद्रों] से अथवा वसुन्धरा के आकरों [mines] से निकाल लाये हैं, वे धन वस्तुत: आपके ही तो हैं । जिनको समुद्रों व आकरों से हम नहीं निकाल सके वे भी आपके हैं ही । निकाले हुए धन ‘सुत' हैं, न निकाले हुए 'असुत' हैं । हे प्रभो ! (त्वम्) = आप ही (जनानाम्) = सब प्राणियों के (राजा) = जीवनों को नियमित कर रहे हैं । मैं तो वस्तुत: कुछ हूँ ही नहीं, यह सब आपकी ही माया है, आपका ही खेल है, मुझे तो आपने निमित्तमात्र बनाया है, अतः इस कृपणता को आपने ही कुचलना है।
भावार्थ
कृपणता को कुचलने के लिए मैं इस तथ्य को स्मरण करूँ कि सब 'सुत' व 'असुत' धनों के स्वामी प्रभु ही हैं ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (त्वं) आप (सुतानां) उत्पन्न, शिक्षित और (असुतानां) अनुत्पन्न और अशिक्षित, जो कालान्तर में उत्पन्न या शिक्षित होंगे उन सब पर (ईशिषे) सामर्थ्यवान् है क्योंकि (त्वं) तू (जनानां) सब मनुष्यों, और उत्पन्न होने हारे प्राणियों का (राजा) अधिपति, राजा है। इन्द्र=परमात्मा, आचार्य और राजा हैं। वे क्रम से योगी और शिष्यों को और प्रजाओं को निरन्तर शिक्षा दें और उनकी व्यवस्था करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ६ मेधातिथिः काण्वः। १० वसिष्ठः। ३ प्रगाथः काण्वः। ४ पराशरः। ५ प्रगाथो घौरः काण्वो वा। ७ त्र्यरुणत्रसदस्यू। ८ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वरा। ९ हिरण्यस्तूपः। ११ सार्पराज्ञी। देवता—१ इध्मः समिद्धो वाग्निः तनूनपात् नराशंसः इन्द्रश्चः क्रमेण। २ आदित्याः। ३, ५, ६ इन्द्रः। ४,७-९ पवमानः सोमः। १० अग्निः। ११ सार्पराज्ञी ॥ छन्दः-३-४, ११ गायत्री। ४ त्रिष्टुप। ५ बृहती। ६ प्रागाथं। ७ अनुष्टुप्। ४ द्विपदा पंक्तिः। ९ जगती। १० विराड् जगती॥ स्वरः—१,३, ११ षड्जः। ४ धैवतः। ५, ९ मध्यमः। ६ गान्धारः। ८ पञ्चमः। ९, १० निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जीवात्मा परमात्मानं स्तौति।
पदार्थः
हे (इन्द्र) जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! (त्वम्) त्वमेव (सुतानाम्) उत्पन्नानां प्राणिनां पदार्थानां च (ईशिषे) अधीश्वरोऽसि। (त्वम्) त्वमेव (असुतानाम्) अनुत्पन्नानां भाविनां प्राणिनां पदार्थानां च ईश्वरो भविष्यसि। (त्वम्) त्वमेव (जनानाम्) मनुष्याणां (राजा) सम्राट् असि ॥३॥
भावार्थः
जीवात्मनि या महती शक्तिर्निहिता सा परमात्मनैव प्रदत्तास्तीति परमात्मस्तुत्याऽत्र जीवः स्वाभिमानं निराकरोति ॥३॥ अत्रोपास्योपासकसम्बन्धवर्णनाद् जीवात्मोद्बोधनाद् विदुषामुपासकानां च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥ इत्येकादशेऽध्याये प्रथमः खण्डः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, Thou art the Lord of the horn, and the unborn, the learned, and the ignorant. Thou art the sovereign of the people!
Meaning
You rule over the creative and cooperative men of positive action. You rule over the uncreative and destructive men of negative action as well. Indra, you are the ruler, the ultimate ordainer of good and evil both. (Rg. 8-64-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र त्वम्) હે ઐશ્વયવાન પરમાત્મન્ ! તું (सुतानाम् ईशिषे) ઉપાસનારસ સંપાદકોનો સ્વામી બની રહ્યો છે. (त्वम् असुतानाम्) તું ઉપાસનારસ રહિતો-નાસ્તિકોનો પણ સ્વામી બની રહ્યો છે. (त्वं राजा जनानाम्) તું રાજા છે. જન્મનાર પ્રાણીઓને ભોગ પ્રદાન માટે ભોગ યથાયોગ્ય સર્વ આપે છે, તે તારી મહાન દયા છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
जीवात्म्यामध्ये जी महान शक्ती निहित आहे, ती परमेश्वरानेच दिलेली आहे, या कारणामुळे परमेश्वराच्या स्तुतीने येथे जीव आपला अभिमान (अहंकार) दूर करत आहे. ॥३॥
टिप्पणी
येथे उपास्य-उपासकाचा संबंध वर्णित असल्यामुळे, जीवात्म्याचे उद्बोधन झाल्यावर विद्वान उपासकाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती जाणली पाहिजे
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