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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1359
ऋषिः - पराशरः शाक्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
3
स꣡ व꣢र्धि꣣ता꣡ वर्ध꣢꣯नः पू꣣य꣡मा꣢नः꣣ सो꣡मो꣢ मी꣣ढ्वा꣢ꣳ अ꣣भि꣢ नो꣣ ज्यो꣡ति꣢षावीत् । य꣡त्र꣢ नः꣣ पू꣡र्वे꣢ पि꣣त꣡रः꣢ पद꣣ज्ञाः꣢ स्व꣣र्वि꣡दो꣢ अ꣣भि꣡ गा अद्रि꣢꣯मि꣣ष्ण꣢न् ॥१३५९॥
स्वर सहित पद पाठसः꣢ । व꣣र्धिता꣢ । व꣡र्ध꣢꣯नः । पू꣣य꣡मा꣢नः । सो꣡मः꣢꣯ । मी꣣ढ्वा꣢न् । अ꣣भि꣢ । नः꣣ । ज्यो꣡ति꣢꣯षा । आ꣣वीत् । य꣡त्र꣢꣯ । नः꣢ । पू꣡र्वे꣢꣯ । पि꣣त꣡रः꣢ । प꣣दज्ञाः꣢ । प꣣द । ज्ञाः꣢ । स्व꣣र्वि꣡दः꣢ । स्वः꣣ । वि꣡दः꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । गाः । अ꣡द्रि꣢꣯म् । अ । द्रि꣣म् । इष्ण꣢न् ॥१३५९॥
स्वर रहित मन्त्र
स वर्धिता वर्धनः पूयमानः सोमो मीढ्वाꣳ अभि नो ज्योतिषावीत् । यत्र नः पूर्वे पितरः पदज्ञाः स्वर्विदो अभि गा अद्रिमिष्णन् ॥१३५९॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । वर्धिता । वर्धनः । पूयमानः । सोमः । मीढ्वान् । अभि । नः । ज्योतिषा । आवीत् । यत्र । नः । पूर्वे । पितरः । पदज्ञाः । पद । ज्ञाः । स्वर्विदः । स्वः । विदः । अभि । गाः । अद्रिम् । अ । द्रिम् । इष्णन् ॥१३५९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1359
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - प्रभु-प्राप्ति का मार्ग
पदार्थ -
१. (सः) = प्रभु (वर्धनः) = सदा से वृद्ध हैं। [वर्धमानं स्वे दमे] (वर्धिताः) = अपने भक्तों के बढ़ानेवाले हैं। २. (पूयमानः) = अपने भक्तों को पवित्र करनेवाले हैं । ३. (मीढ्वान्) = हमपर सुखों का वर्षण करनेवाले हैं । ४. वे (सोमः) = शान्त प्रभु (नः) = हमें (ज्योतिषा) = ज्ञान की ज्योति से (अभिआवित्) = अन्दर व बाहर से रक्षित करें। वे प्रभु तेजस्विता की प्राप्ति के द्वारा बाह्य शत्रुओं से तथा ज्ञान की प्राप्ति के द्वारा अन्तः शत्रुओं से सुरक्षित करते हैं ।
५. (यत्र) = जिस स्थिति में पहुँचकर, अर्थात् अन्तः व बाह्य शत्रुओं से सुरक्षित होकर (नः) = हमारे
[क] पूर्वे=अपना पूरण करनेवाले [पृ पूरणे], अपनी न्यूनताओं को दूर करनेवाले, [ख] पितरः=रक्षण के कार्यों में लगे हुए [पा रक्षणे], [ग] पदज्ञाः= मार्ग को जाननेवाले, अर्थात् संसार में 'कौन-सा मृत्यु का मार्ग है और कौन-सा ब्रह्म-प्राप्ति का' इसको समझनेवाले, [घ] स्वर्विदः - प्रकाश को प्राप्त करनेवाले, [ङ] अभिगा: = वेदवाणी की ओर चलनेवाले अद्रिम्-इस अविदारणीय [न दृणन्ति यम्] तथा आदरणीय [आदरयितव्यः] प्रभु को इष्णन्- चाहते हैं ।
भावार्थ -
हम प्रभु-प्राप्ति के मार्ग पर चलें । वह मार्ग यह है – १. हम अपना पूरण करें, २. रक्षण के कार्यों में लगें, ३. 'आर्जव = सरलता ब्रह्म-मार्ग हैं' इसे समझें, ४. प्रकाश प्राप्त करें, ५. वेदवाणी की ओर चलें, ६. उस अविदारणीय प्रभु की ही कामना करें ।
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