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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1370
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
2
सू꣡र्य꣢स्येव र꣣श्म꣡यो꣢ द्रावयि꣣त्न꣡वो꣢ मत्स꣣रा꣡सः꣢ प्र꣣सु꣡तः꣢ सा꣣क꣡मी꣢रते । त꣡न्तुं꣢ त꣣तं꣢꣫ परि꣣ स꣡र्गा꣢स आ꣣श꣢वो꣣ ने꣡न्द्रा꣢दृ꣣ते꣡ प꣢वते꣣ धा꣢म꣣ किं꣢ च꣣न꣢ ॥१३७०॥
स्वर सहित पद पाठसू꣡र्य꣢꣯स्य । इ꣣व । रश्म꣡यः꣢ । द्रा꣣वयित्न꣡वः꣢ । म꣣त्सरा꣡सः꣢ । प्र꣣सु꣡तः꣢ । प्र꣣ । सु꣡तः꣢꣯ । सा꣣क꣢म् । ई꣣रते । त꣡न्तु꣢꣯म् । त꣣त꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । स꣡र्गा꣢꣯सः । आ꣣श꣡वः꣢ । न꣡ । इन्द्रा꣢꣯त् । ऋ꣣ते꣢ । प꣣वते । धा꣡म꣢꣯ । किम् । च꣣ । न꣢ ॥१३७०॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्यस्येव रश्मयो द्रावयित्नवो मत्सरासः प्रसुतः साकमीरते । तन्तुं ततं परि सर्गास आशवो नेन्द्रादृते पवते धाम किं चन ॥१३७०॥
स्वर रहित पद पाठ
सूर्यस्य । इव । रश्मयः । द्रावयित्नवः । मत्सरासः । प्रसुतः । प्र । सुतः । साकम् । ईरते । तन्तुम् । ततम् । परि । सर्गासः । आशवः । न । इन्द्रात् । ऋते । पवते । धाम । किम् । च । न ॥१३७०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1370
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - पवित्र तथा विनीत
पदार्थ -
गत मन्त्र के अनुसार सोम रक्षा से 'ज्ञान व बल' के बढ़ानेवाले लोग 'हिरण्यस्तूप' =वीर्य की ऊर्ध्वगतिवाले [हिरण्य-वीर्य, स्तूप् to raise] ‘आङ्गिरस'=शक्तिशाली लोग १. (सूर्यस्य रश्ममयः इव) = सूर्य की किरणों के समान होते हैं- किरणों की भाँति तेजस्वी [बलवान्] व प्रकाशमान् [ज्ञानी] होते हैं । २. (द्रावयित्नव:) = सूर्य-किरणें जैसे अँधेरे को दूर भगा देती हैं, उसी प्रकार ये भी प्रजाओं के अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाले [Driving away] होते हैं । ३. (मत्सरासः) = स्वयं सदा प्रसन्न तथा अन्य लोगों में हर्ष का संचार करनेवाले होते हैं । ४. (प्रसुतः) = ये प्रकर्षेण निर्माण के कार्यों में लगनेवाले होते हैं । ५. (साकम् ईरते) = ये प्रजाओं के साथ ही विचरते हैं, एकान्त में समाधि का आनन्द लेनेवाले ही नहीं बने रहते । ६. (ततं तन्तुम्) = वह विस्तृत एक-एक पिण्ड के अन्दर विद्यमान सूत्र ही परि=[परि= भाग] इनका भाग होता है । 'मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव' = उस प्रभु में ही यह सारा ब्रह्माण्ड ओत-प्रोत है । वे प्रभु‘सूत्रं सूत्रस्य' सूत्र के भी सूत्र हैं । वह प्रभु ही इन हिरण्यस्तूपों का सेवनीय होता है। इसके परिणामस्वरूप ७. (सर्गास:) = ये उत्साह व दृढ़ निश्चयवाले [resolve] होते हैं, वासनाओं पर प्रबल आक्रमण [onset] करनेवाले होते हैं तथा ८. (आशवः) = शीघ्रता से कार्यों में व्यापृत होनेवाले होते हैं । ९. ये इस तत्त्व को समझते हैं कि (इन्द्रात् ऋते) = उस प्रभु के बना (किंचन धाम) = कोई भी स्थान न (पवते) = पवित्र नहीं होता, इसलिए ये हिरण्यस्तूप अपने जीवन को पवित्र [पवमान] व विनीत [सोम] बनाने के लिए सदा सूत्ररूप से अपने अन्दर वर्त्तमान उस प्रभु का सेवन करते हैं ।
भावार्थ -
प्रभु के स्मरण से हमारे जीवन 'पवित्र व विनीत' बनें ।
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