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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1387
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
2
आ꣢ जा꣣मि꣡रत्के꣢꣯ अव्यत भु꣣जे꣢꣫ न पु꣣त्र꣢ ओ꣣꣬ण्योः꣢꣯ । स꣡र꣢ज्जा꣣रो꣡ न योष꣢꣯णां व꣣रो꣢ न योनि꣢꣯मा꣣स꣡द꣢म् ॥१३८७॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । जा꣣मिः꣢ । अ꣡त्के꣢꣯ । अ꣣व्यत । भुजे꣢ । न । पु꣣त्रः꣢ । पु꣣त् । त्रः꣢ । ओ꣣ण्योः꣣꣬ । स꣡र꣢꣯त् । जा꣣रः꣢ । न । यो꣡ष꣢꣯णाम् । व꣣रः꣢ । न । यो꣡नि꣢꣯म् । आ꣣स꣡द꣢म् । आ꣣ । स꣡द꣢꣯म् ॥१३८७॥
स्वर रहित मन्त्र
आ जामिरत्के अव्यत भुजे न पुत्र ओण्योः । सरज्जारो न योषणां वरो न योनिमासदम् ॥१३८७॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । जामिः । अत्के । अव्यत । भुजे । न । पुत्रः । पुत् । त्रः । ओण्योः । सरत् । जारः । न । योषणाम् । वरः । न । योनिम् । आसदम् । आ । सदम् ॥१३८७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1387
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - कितना परिवर्तन ?
पदार्थ -
मनुष्य इस संसार में न जाने कहाँ-कहाँ भटकता है। इधर-उधर भटकने से ही उसका नाम ‘जामि' हुआ है [जमतेर्गतिकर्मणः]। यह भटकता हुआ जीव प्रभु चरणों में ही रक्षण पाता है। मन्त्र में कहते हैं कि (आजामि:) = नाना विषयों में चारों ओर भटकनेवाला यह जीव (अत्के) = उस सतत गतिशील–स्वाभाविकी क्रियावाले प्रभु के चरणों में उपस्थित होकर ही (अव्यत)= रक्षित होता है, (न) = उसी प्रकार जैसेकि (पुत्रः) = पुत्र (ओण्योः) = द्यावापृथिवी [द्यौष्पिता, पृथिवी माता] के तुल्य मातापिता की (भुजे) = भुजाओं में ।
‘इस रक्षा के पाने पर जीव के जीवन में क्या अन्तर आ जाता है, इसका उत्तर बहुत काव्यमय भाषा में देते हैं कि आज तक जो (जारः न) = अपनी शक्तियों को जीर्ण करनेवाला – वासना का शिकार - सा बना हुआ (योषणां सरत्) = पर-दाराओं के प्रति जा रहा था, भोगविलास में ग्रसित था, वह भोगासक्त पुरुष सब भोगों को तिलाञ्जलि देकर (वरः न) = एक वर पुरुष की भाँति (योनिम् आसदत्) = अपने घर पर स्थित हुआ है। अब वह पर-दाराभिमर्षण से परे हो गया है। अब वह वासनाओं से दूर होकर
उत्तम चरित्रवाला बनकर घर पर ही सदाचारपूर्वक निवास करता है, इधर-उधर भटकता नहीं । अब यह वस्तुत: उत्तम सन्तानों का पिता–रक्षक बनकर प्रजापति नामवाला हुआ है— सबके प्रति प्रेम से चलता हुआ 'वैश्वामित्र' है और प्रशंसनीय जीवनवाला होने से ‘वाच्य' है।
भावार्थ -
विषयों में भटकनेवाला प्रभु चरणों में शरण पाकर सुरक्षित हो जाता है, जार वर बन जाता है। घर से बाहर इधर-उधर भटकनेवाला घर पर शान्त होकर रहनेवाला हो जाता है।
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