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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1388
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
2
स꣢ वी꣣रो꣡ द꣢क्ष꣣सा꣡ध꣢नो꣣ वि꣢꣫ यस्त꣣स्त꣢म्भ꣣ रो꣡द꣢सी । ह꣡रिः꣢ प꣣वि꣡त्रे꣢ अव्यत वे꣣धा꣡ न योनि꣢꣯मा꣣स꣡द꣢म् ॥१३८८॥
स्वर सहित पद पाठसः । वी꣣रः꣢ । द꣣क्षसा꣡ध꣢नः । द꣣क्ष । सा꣡ध꣢꣯नः । वि । यः । त꣣स्त꣡म्भ꣢ । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । ह꣡रिः꣢꣯ । प꣣वि꣡त्रे꣢ । अ꣣व्यत । वेधाः꣢ । न । यो꣡नि꣢꣯म् । आ꣣स꣡द꣢म् । आ꣣ । स꣡द꣢꣯म् ॥१३८८॥
स्वर रहित मन्त्र
स वीरो दक्षसाधनो वि यस्तस्तम्भ रोदसी । हरिः पवित्रे अव्यत वेधा न योनिमासदम् ॥१३८८॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । वीरः । दक्षसाधनः । दक्ष । साधनः । वि । यः । तस्तम्भ । रोदसीइति । हरिः । पवित्रे । अव्यत । वेधाः । न । योनिम् । आसदम् । आ । सदम् ॥१३८८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1388
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - 'वाच्य' का जीवन
पदार्थ -
गत मन्त्र में उल्लेख हुआ था कि प्रभु की शरण में यह 'जार' 'वर' बन जाता है। अब विषयों में न भटकने से १. (सः वीरः) = यह वीर बनता है। २. (दक्षसाधनः) = [दक्ष=बल, growth= उन्नति] बल व उन्नति का सिद्ध करनेवाला होता है । ३. (यः) = यह वह बनता है जो (रोदसी) = द्युलोक और पृथिवीलोक को (वितस्तम्भ) = थामता है, अर्थात् ऐसे ही लोगों पर जगत् का आधार होता है, अथवा यह अपने शरीररूप पृथिवीलोक को स्वस्थ रखता है और मस्तिष्करूप द्युलोक को जगमगाता हुआ । ४. (हरिः) = यह औरों के दुःखों का हरण करनेवाला (पवित्रे) = उस पवित्र प्रभु में (अव्यत) = अपनी रक्षा करता है । ५. (वेधाः न) = एक समझदार व्यक्ति की भाँति (योनिम्) = अपने घर में (आसदम्) = बैठता है। अब यह इधर-उधर विषय-वासनाओं की खोज में भटकता नहीं फिरता, धीमे-धीमे यह स्थिरवृत्ति का बनता चलता है ।
भावार्थ -
हम वीर, बल के बढ़ानेवाले, शरीर व मस्तिष्क के संस्थापक [न क्षीणशक्तिवाले], प्रभु चरणों में अपने को सुरक्षित करें और समझदार बनकर घर पर रहनेवाले बनें ।
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