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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1396
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣣ग्नि꣢र्वृ꣣त्रा꣡णि꣢ जङ्घनद्द्रविण꣣स्यु꣡र्वि꣢प꣣न्य꣡या꣢ । स꣡मि꣢द्धः शु꣣क्र꣡ आहु꣢꣯तः ॥१३९६॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣ग्निः꣢ । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । ज꣣ङ्घनत् । द्रविणस्युः꣢ । वि꣣पन्य꣡या꣢ । स꣡मि꣢꣯द्धः । सम् । इ꣣द्धः । शुक्रः꣢ । आ꣡हु꣢꣯तः ॥१३९६॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्निर्वृत्राणि जङ्घनद्द्रविणस्युर्विपन्यया । समिद्धः शुक्र आहुतः ॥१३९६॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्निः । वृत्राणि । जङ्घनत् । द्रविणस्युः । विपन्यया । समिद्धः । सम् । इद्धः । शुक्रः । आहुतः ॥१३९६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1396
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

मन्त्र संख्या ४ पर इसका अर्थ इस प्रकार है- (अग्निः) = आगे ले-चलनेवाले वे प्रभु (वृत्राणि) = ज्ञान की आवरक वासनाओं को (जंघनत्) = नष्ट करते हैं। वे प्रभु (द्रविणस्युः) = हमारे संचित द्रविण को चाहते हैं, अर्थात् हम धन को प्रभु- अर्पण कर दें । (विपन्यया) = इस विशिष्ट स्तुति के द्वारा वे प्रभु हमारे वृत्रों का नाश करते हैं । वे प्रभु १. (समिद्धः) = हममें दीप्त होते हैं । २. (शुक्रः) = हमसे जाए जाते हैं और ३. (आहुत:) = हमसे समर्पित होते हैं।

भावार्थ -

हम अपना सब कुछ प्रभु को सौंपें । प्रभु हमारे शत्रुओं का विनाश करेंगे ।

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