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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1434
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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त्व꣢꣫ꣳ हि शूरः꣣ स꣡नि꣢ता चो꣣द꣢यो꣣ म꣡नु꣢षो꣣ र꣡थ꣢म् । स꣣हा꣢वा꣣न्द꣡स्यु꣢मव्र꣣त꣢꣫मोषः꣣ पा꣢त्रं꣣ न꣢ शो꣣चि꣡षा꣢ ॥१४३४॥

स्वर सहित पद पाठ

त्व꣢म् । हि । शू꣡रः꣢꣯ । स꣡नि꣢꣯ता । चो꣣द꣡यः꣢ । म꣡नु꣢꣯षः । र꣡थ꣢꣯म् । स꣣हा꣡वा꣢न् । द꣡स्यु꣢꣯म् । अ꣣व्रत꣢म् । अ꣢ । व्रत꣢म् । ओ꣡षः꣢꣯ । पा꣡त्र꣢꣯म् । न । शो꣣चि꣡षा꣢ ॥१४३४॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वꣳ हि शूरः सनिता चोदयो मनुषो रथम् । सहावान्दस्युमव्रतमोषः पात्रं न शोचिषा ॥१४३४॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । हि । शूरः । सनिता । चोदयः । मनुषः । रथम् । सहावान् । दस्युम् । अव्रतम् । अ । व्रतम् । ओषः । पात्रम् । न । शोचिषा ॥१४३४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1434
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

हे सोम! (त्वं हि) = तू निश्चय से १. (शूर:) = अ से ह तक [a to z ] सब शत्रुओं का शातन करनेवाला है। रोगकृमियों को नष्ट करके तू हमारे शत्रुओं का नाश करता है २. (सनिता) = शत्रुओं का नाश करके तू नीरोगता आदि का देनेवाला है। ३. (मनुष: रथं चोदय) = हे सोम! तू ही मनुष्य के रथ को प्रेरित करनेवाला है । तेरे होने से यह रथ चलता है, अर्थात् तेरी समाप्ति और इस जीवन की भी समाप्ति [मरणं बिन्दुपातेन] । ४. (सहावान्) = मन के अन्दर उत्पन्न हो जानेवाली अशुभ वृत्तियों को मसल डालनेवाला है। 'वीर्य' मनुष्य को वीरत्व — Virtues प्राप्त कराता है और वह सब vices= विषयों से ऊपर उठने में समर्थ होता है । ५. इस प्रकार यह सुरक्षित सोम एक (दस्युम्) = ध्वंसक वृत्तिवाले [दस्=to destroy] (अव्रतम्) = कुत्सित – निन्दित व्रतोंवाले पुरुष को भी (ओष:) = दुर्गुणों के दहन [उष् दाहे] से ऐसा पवित्र बना देता है (न) = जैसेकि (पात्रम्) = किसी मलिन बर्तन को (शोचिषा) = अग्नि के द्वारा - अग्नि में तपाकर शुद्ध कर देते हैं ।

इस प्रकार यह सोम सब कुटिलगतियों को [अग] नष्ट करके [स्त्य] एक व्यक्ति को सचमुच 'अगस्त्य' बना देता है ।

भावार्थ -

हम 'सोम' के महत्त्व को समझें, उसके सुरक्षण द्वारा सु-गुणों का सन्धारण करें।

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