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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1448
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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इ꣡न्द्रा꣢य सोम꣣ पा꣡त꣢वे꣣ म꣡दा꣢य꣣ प꣡रि꣢ षिच्यसे । म꣣नश्चि꣡न्मन꣢꣯स꣣स्प꣡तिः꣢ ॥१४४८॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सो꣡म । पा꣡त꣢꣯वे । म꣡दा꣢꣯य । प꣡रि꣢꣯ । सि꣣च्यसे । मनश्चि꣢त् । म꣣नः । चि꣢त् । म꣡न꣢꣯सः । प꣡तिः꣢꣯ ॥१४४८॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्राय सोम पातवे मदाय परि षिच्यसे । मनश्चिन्मनसस्पतिः ॥१४४८॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्राय । सोम । पातवे । मदाय । परि । सिच्यसे । मनश्चित् । मनः । चित् । मनसः । पतिः ॥१४४८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1448
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 5
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पदार्थ -

हे (सोम) = अन्नादि के सारभूत तत्त्व ! तू (मनश्चित्) = मन का भी चयन करनेवाला है, अर्थात् मानस शक्ति का भी बढ़ानेवाला है । (मनसः पतिः) = मानसशक्ति का रक्षक है। सोम के सुरक्षित होने पर मानसशक्ति की वृद्धि व रक्षा होती है । भोगविलास में फँसकर इसके नष्ट होने से ही — Nervous Break down आदि रोग हो जाते हैं। इसके सुरक्षित होने पर मननशक्ति की वृद्धि होती है, मन बड़ा प्रबल बना रहता है। हमारे मनों पर आसुर वृत्तियों के आक्रमण नहीं होते।

हे सोम ! तू १. (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिए २. (पातवे) = शरीर की रोगादि से रक्षा के लिए, और ३. (मदाय) = जीवन में उल्लास के लिए (परिषिच्यसे) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग में सिक्त होता है । जो भी मनुष्य सोम के महत्त्व को समझ जाता है वह इसे कभी नष्ट नहीं होने देता । इसकी ऊर्ध्वगति के द्वारा वह इसे अपने शरीर का ही भाग बनाता है। सारे रुधिर में व्याप्त होकर यह सर्वाङ्गों में सिक्त होता है और हमें १. दृढ़ मनवाला बनाता है, २. सुरक्षित मनवाला करता है, ३. प्रभु-दर्शन के योग्य बनाता है, ४. नीरोग शरीरवाला करता है तथा ५. जीवन में विशेष ही उल्लास देता है।

भावार्थ -

हम 'सोमपान' के महत्त्व को समझें और इसके द्वारा स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन व स्वस्थ बुद्धिवाले बनें ।

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