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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 146
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣣मा꣡ उ꣢ त्वा पुरूवसो꣣ऽभि꣡ प्र नो꣢꣯नुवु꣣र्गि꣡रः꣢ । गा꣡वो꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न धे꣣न꣡वः꣢ ॥१४६॥
स्वर सहित पद पाठइ꣣माः꣢ । उ꣣ । त्वा । पुरूवसो । पुरु । वसो । अभि꣢ । प्र । नो꣣नुवुः । गि꣡रः꣢꣯ । गा꣡वः꣢꣯ । व꣣त्स꣢म् । न । धे꣣न꣡वः꣢ ॥१४६॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा उ त्वा पुरूवसोऽभि प्र नोनुवुर्गिरः । गावो वत्सं न धेनवः ॥१४६॥
स्वर रहित पद पाठ
इमाः । उ । त्वा । पुरूवसो । पुरु । वसो । अभि । प्र । नोनुवुः । गिरः । गावः । वत्सम् । न । धेनवः ॥१४६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 146
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
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विषय - प्रभु बछड़ा हो, मैं गौ
पदार्थ -
हे (पुरुवसो)=पालक और पूरक निवास देनेवाले प्रभो!( इमा)= ये (गिरः) = मेरी वाणियाँ (उ)=निश्चय से (त्वा)=आपको ही (अभिप्रनोनुवुः) = लक्ष्य बनाकर निरन्तर स्तुति करनेवाली हों। (न)= जैसेकि (धेनवः गाव:)=नवप्रसूतिका गौएँ (वत्सम्) = बछड़े का ध्यान करनेवाली होती हैं।
प्रभु सभी को वास के उचित साधन प्राप्त कराते हैं। वे साधन उनका पालन व पूरण करनेवाले होते हैं। कुछ तो ज्ञान की कमी के कारण और कुछ मन को पूर्ण वश में न कर सकने के कारण हम उन पदार्थों का ठीक प्रयोग नहीं करते और परिणामतः हमारे उचित विकास में कुछ कमी आ जाती है। प्रभु पुरुवसु हैं। मैं सदा उस प्रभु का स्तवन करूँ, जिससे मेरा अज्ञानान्धकार दूर हो तथा मैं चित्तवृत्तियों को वश में कर सकूँ और इस प्रकार प्रभु से दिये गये उन पदार्थों का ठीक उपयोग करके उत्तम निवासवाला बनूँ। मेरा चित्त सदा उस प्रभु के लिए उसी प्रकार उत्कण्ठित रहे जिस प्रकार गौ बछड़े के लिए उत्सुक होती है। मेरी चित्तरूप नवसूतिका गौ के लिए प्रभु बछड़े के समान हों। ध्यान इधर- उधर न करती हुई गौ जैसे बछड़े की ओर ही चली आती है, उसी प्रकार मेरा मन इधर- उधर विषयों में भ्रान्त न होकर प्रभु की ओर ही लगा रहे ।
चित्त को प्रभु में लगाने से बढ़कर बुद्धिमत्तापूर्ण कुछ और है भी नहीं। यह ठीक है कि यह सब-कुछ एक रात में होनेवाला नहीं । धीरे-धीरे अभ्यास से ही मन प्रभु में लगेगा। कण-कण करके हमें इस मार्ग पर आगे बढ़ना होगा। इस प्रकार थोड़ा-थोड़ा [कण-कण] करके निरन्तर आगे बढ़नेवाला 'कण्वपुत्र' = काण्व' इस मन्त्र का ऋषि है। यह सचमुच ‘मेधाम् अतति'=ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ रहा है, अतः 'मेधातिथि' है।
भावार्थ -
हम अपनी चित्तवृत्तियों को सदा प्रभु में अर्पित करें।
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