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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1469
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
यु꣣ञ्ज꣡न्त्य꣢स्य꣣ का꣢म्या꣣ ह꣢री꣣ वि꣡प꣢क्षसा꣣ र꣡थे꣢ । शो꣡णा꣢ धृ꣣ष्णू꣢ नृ꣣वा꣡ह꣢सा ॥१४६९॥
स्वर सहित पद पाठयु꣣ञ्ज꣡न्ति꣢ । अ꣣स्य । का꣡म्या꣢꣯ । हरी꣢꣯इ꣡ति꣢ । वि꣡प꣢꣯क्षसा । वि । प꣣क्षसा । र꣡थे꣢꣯ । शो꣡णा꣢꣯ । धृ꣣ष्णू꣡इति꣢ । नृ꣣वा꣡ह꣢सा । नृ꣣ । वा꣡ह꣢꣯सा ॥१४६९॥
स्वर रहित मन्त्र
युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे । शोणा धृष्णू नृवाहसा ॥१४६९॥
स्वर रहित पद पाठ
युञ्जन्ति । अस्य । काम्या । हरीइति । विपक्षसा । वि । पक्षसा । रथे । शोणा । धृष्णूइति । नृवाहसा । नृ । वाहसा ॥१४६९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1469
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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विषय - इन्द्रियाश्वों को रथ में जोतना
पदार्थ -
मनुष्य का यह शरीर रथ है—इस रथ में ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप दो घोड़े जुते हैं। ये घोड़े (शोणा) = [शोणृ गतौ] अत्यन्त चञ्चल हैं । इन्द्रियों की चञ्चलता लोकसिद्ध है। ये (धृष्णू) = धर्षण करनेवाले हैं—कुचल डालनेवाले हैं। ('इन्द्रियाणि प्रमाथीनि') = ये मथ डालनेवाली हैं। (नृवाहसा) = ये मनुष्यों को इधर-उधर ले-जानेवाली हैं, ('हरन्ति प्रसभं मन:') = बलात् मन को हर ले जाती हैं और न जाने कहाँ-कहाँ भटकती हैं । ये न
युञ्जान लोग (हरी) = शरीररूप रथ को आगे और आगे ले जानेवाले इन इन्द्रियाश्वों को (अस्य काम्या) = इस प्रभु की कामनावाला बनाकर तथा (विपक्षसा) = [वि= विशेष, पक्ष परिग्रहे ] = विशिष्ट ज्ञान व कर्म का परिग्रह करनेवाला बनाकर (रथे) = इस शरीररूप रथ में ही (युञ्जन्ति) = जोड़ते हैं। सामान्यतः ये घोड़े प्रभु की कामना न करके विषयों की कामनावाले हो जाते हैं और उन्हीं में विचरते रहते हैं ज्ञान व यज्ञों के परिग्रह की बजाय ये विषयों का ही स्वाद लेते रहते हैं । रथ को आगे ले-चलने के स्थान में चरने में मस्त रहते हैं । 'शतं वैखानस' लोग इन्हें रथ मंण जोतकर यात्रा को पूरा करने का ध्यान करते हैं। यह यात्रा कोई सुगम व संक्षिप्त सी तो है ही नहीं - यह तो निरन्तर आगे बढ़ते रहने से ही पूरी होगी । इस तत्त्व को समझकर इन इन्द्रियाश्वों का रथ में जोतना ही श्रेयस्कर है |
भावार्थ -
हम इन्द्रियाश्वों को रथ में जोतकर यात्रा को पूरा करने का ध्यान करें।
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