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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1498
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
वि꣣भक्ता꣡सि꣢ चित्रभानो꣣ सि꣡न्धो꣢रू꣣र्मा꣡ उ꣢पा꣣क꣢ आ । स꣣द्यो꣢ दा꣣शु꣡षे꣢ क्षरसि ॥१४९८॥
स्वर सहित पद पाठवि꣣भक्ता꣢ । वि꣣ । भक्ता꣢ । अ꣡सि । चित्रभानो । चित्र । भानो । सि꣡न्धोः꣢꣯ । ऊ꣣र्मौ꣢ । उ꣣पाके꣢ । आ । स꣣द्यः꣢ । स꣣ । द्यः꣢ । दा꣣शु꣡षे꣢ । क्ष꣣रसि ॥१४९८॥
स्वर रहित मन्त्र
विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ । सद्यो दाशुषे क्षरसि ॥१४९८॥
स्वर रहित पद पाठ
विभक्ता । वि । भक्ता । असि । चित्रभानो । चित्र । भानो । सिन्धोः । ऊर्मौ । उपाके । आ । सद्यः । स । द्यः । दाशुषे । क्षरसि ॥१४९८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1498
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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विषय - ‘दाश्वान्' को देनेवाले प्रभु हैं
पदार्थ -
हे (चित्रभानो) = अद्भुत दीप्तिवाले प्रभो! आप क्या तो (सिन्धोः ऊर्मा) = समुद्र की लहरों में - अर्थात् घर से दूर विदेश में समुद्रपार स्थित दाश्वान् को और क्या (उपाके) = बिल्कुल समीप में स्थित [in the neighbourhood] दाश्वान् को (आ) = सर्वथा (विभक्ता असि) = उचित धनों में भागी बनानेवाले हैं । (दाशुषे) = इस दाश्वान् के लिए - आपके प्रति अपना समर्पण करनेवाले दानी [दाश् दाने] के लिए (सद्य) = शीघ्र ही (क्षरसि) = आवश्यक धनों को देते हैं। प्रभु का भक्त - लोकहित के लिए अपना तन-मन-धन देनेवाला दाश्वान् कभी भूखा नहीं मरता । 'दाश्वान्' लोकहित के लिए देता है और प्रभु दाश्वान् को देते हैं । ' Spend and God will send' इस लोकहित की मूल भावना यही तो है । दाश्वान् घर पर हो, समुद्र पार गया हो, कहीं भी हो प्रभु उसकी आवश्यकताएँ पूरी करते ही हैं । एवं, परार्थ के द्वारा यह दाश्वान् स्वार्थ को सिद्ध करता है और सुखी व शान्त जीवनवाला बनकर प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'शुन: शेप' होता है ।
भावार्थ -
हम दें – प्रभु हमें देंगे ।
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