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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1524
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
अ꣡वा꣢ नो अग्न ऊ꣣ति꣡भि꣢र्गाय꣣त्र꣢स्य꣣ प्र꣡भ꣢र्मणि । वि꣡श्वा꣢सु धी꣣षु꣡ व꣢न्द्य ॥१५२४॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡व꣢꣯ । नः꣣ । अग्ने । ऊति꣡भिः꣢ । गा꣣यत्र꣡स्य꣢ । प्र꣡भ꣢꣯र्मणि । प्र । भ꣣र्मणि । वि꣡श्वा꣢꣯सु । धी꣣षु꣢ । व꣣न्द्य ॥१५२४॥
स्वर रहित मन्त्र
अवा नो अग्न ऊतिभिर्गायत्रस्य प्रभर्मणि । विश्वासु धीषु वन्द्य ॥१५२४॥
स्वर रहित पद पाठ
अव । नः । अग्ने । ऊतिभिः । गायत्रस्य । प्रभर्मणि । प्र । भर्मणि । विश्वासु । धीषु । वन्द्य ॥१५२४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1524
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - स्वस्थ शरीर-सुरक्षित मन
पदार्थ -
हे (अग्ने) = मार्ग-दर्शक प्रभो ! (विश्वासु धीषु वन्द्य) = सब प्रज्ञानों व कर्मों में वन्दनीय आप (नः) = हमें (गायत्रस्य) = प्राणों के [प्राणो गायत्रम्-ताण्ड्य ७.१.९] (प्रभर्मणि) = [a house] घर – इस शरीर में (ऊतिभिः) = रक्षणों के द्वारा (अव) = हमारी रक्षा कीजिए । अथवा (गायत्रस्य) = स्तुति के [नि० १.८] (प्रभर्मणि) = पोषण में आप हमारी रक्षा कीजिए ।
प्रभु अग्नि हैं—सदा अग्रेणी हैं— मार्गदर्शक हैं। हमें सब ज्ञानों व कर्मों में उस प्रभु की वन्दना करनी चाहिए। खाते-पीते, सोते-जागते, उठते-बैठते उस प्रभु का स्मरण तो करना ही चाहिए, साथ ही ज्ञानमात्र व कर्ममात्र के साफल्य को उस प्रभु का ही समझना चाहिए। उस प्रभु की कृपा से हमारा यह शरीर प्राणों का घर बनता है और परिणामतः सुरक्षित होकर हम रोगों का शिकार नहीं होते । स्तुति के पोषण से हमारा मन वासनाओं से आक्रान्त नहीं होता । एवं, प्राणपोषण से शरीर तथा स्तुतिपोषण से मन क्रमशः रोगों व वासनाओं से बचे रहते हैं। सब इन्द्रियों के स्वस्थ व शक्तिशाली होने से हम 'गोतम' बनते हैं और वासनाओं के त्याग के कारण हम 'राहूगण' होते हैं ।
भावार्थ -
सदा स्तुत्य प्रभु की कृपा से हमारा शरीर व मन स्वस्थ व सुरक्षित हो ।
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