Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1540
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
वृ꣡ष꣢णं त्वा व꣣यं꣡ वृ꣢ष꣣न्वृ꣡ष꣢णः꣣ स꣡मि꣢धीमहि । अ꣢ग्ने꣣ दी꣡द्य꣢तं बृ꣣ह꣢त् ॥१५४०॥
स्वर सहित पद पाठवृ꣡ष꣢꣯णम् । त्वा꣣ । वय꣢म् । वृ꣣षन् । वृ꣡ष꣢꣯णः । सम् । इ꣣धीमहि । अ꣡ग्ने꣢꣯ । दी꣡द्य꣢꣯तम् । बृ꣣ह꣢त् ॥१५४०॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषणं त्वा वयं वृषन्वृषणः समिधीमहि । अग्ने दीद्यतं बृहत् ॥१५४०॥
स्वर रहित पद पाठ
वृषणम् । त्वा । वयम् । वृषन् । वृषणः । सम् । इधीमहि । अग्ने । दीद्यतम् । बृहत् ॥१५४०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1540
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
Acknowledgment
विषय - वृषन् की उपासना 'वृषन्' बनकर
पदार्थ -
वृषन् शब्द के दो अर्थ हैं—१. शक्तिशाली तथा २. वर्षा करनेवाला । प्रभु में ये दोनों ही गुण निरपेक्षरूप में है। प्रभु की शक्ति निरपेक्ष [absolute] व अनन्त है । वे प्रभु जीवों पर अनन्त सुखों की वर्षा करनेवाले हैं। इस प्रभु की उपासना जीव भी यथासम्भव इन गुणों को अपने अन्दर धारण करके – वृषन् बनकर ही कर सकता है।
मन्त्र में कहते हैं कि हे (वृषन्) = सर्वशक्तिमन्- सब सुखों के वर्षक प्रभो ! (वृषणं त्वा) = वृषन् तुझे को (वयम्) = हम भी (वृषण:) = वृषन् बनते हुए (समिधीमहि) = अपनी हृदयवेदि पर समिद्ध करते हैं । हे (अग्ने) = हमारी सब उन्नतियों के साधक प्रभो! हम उस आपको समिद्ध करते हैं जो आप (बृहत् दीद्यतम्) = अतिशयेन देदीप्यमान हैं। ‘वृषन्' शब्द उस वास्तविक शक्ति का संकेत करता है जो सदा
औरों का कल्याण करने में विनियुक्त होती है । इस शक्ति से युक्त पुरुष ही वीरत्व व दिव्य गुणों [virtues] का पोषण करके उनके कारण कीर्ति सम्पन्न बनकर 'देवश्रवा' इस नाम को चरितार्थ करता है ।
भावार्थ -
हम सात्त्विक बल सम्पन्न होकर उस देदीप्यमान वृषन् के सच्चे आराधक बनें ।
इस भाष्य को एडिट करें