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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1557
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣣भि꣡ प्रया꣢꣯ꣳसि꣣ वा꣡ह꣢सा दा꣣श्वा꣡ꣳ अ꣢श्नोति꣣ म꣡र्त्यः꣢ । क्ष꣡यं꣢ पाव꣣क꣡शो꣢चिषः ॥१५५७॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣भि꣢ । प्र꣡या꣢꣯ꣳसि । वा꣡ह꣢꣯सा । दा꣣श्वा꣢न् । अ꣣श्नोति । म꣡र्त्यः꣢꣯ । क्ष꣡य꣢꣯म् । पा꣣वक꣡शो꣢चिषः । पा꣣वक꣢ । शो꣣चिषः ॥१५५७॥


स्वर रहित मन्त्र

अभि प्रयाꣳसि वाहसा दाश्वाꣳ अश्नोति मर्त्यः । क्षयं पावकशोचिषः ॥१५५७॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । प्रयाꣳसि । वाहसा । दाश्वान् । अश्नोति । मर्त्यः । क्षयम् । पावकशोचिषः । पावक । शोचिषः ॥१५५७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1557
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

उसी विश्वामित्र का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि -

६. (दाश्वान् मर्त्यः) = देने की वृत्तिवाला मनुष्य [दाश् दाने] यह (विश्वामित्र प्रयांसि) = अन्नों कोभोजनों को [प्रयस्- food] (वाहसा) = पञ्चयज्ञों द्वारा अन्य प्राणियों को प्राप्त कराने के साथ [वह्=प्रापणे] (अभ्यश्नोति) = सब प्रकार से प्राप्त करता है । ('भूताय त्वा नारातये') किसी भी वस्तु को प्राप्त करता हुआ यह कहता है कि 'प्राणिमात्र के हित के लिए, नकि न देने के लिए मैं तुझे ग्रहण कर रहा हूँ । यह प्रभु का स्मरण करता है, परिणामतः सभी के साथ बन्धुत्व का अनुभव करता है और (‘त्यक्तेन भुञ्जीथाः') = यज्ञों द्वारा सभी को देकर बचे हुए को खाता है।

७. इस प्रकार त्यागपूर्वक उपभोग का जीवन बिताता हुआ यह (पावकशोचिष:) = पवित्र दीप्ति के (क्षयम्) = निवास-स्थान प्रभु को प्राप्त करता है, अर्थात् इसका जीवन पवित्रता व प्रकाश से परिपूर्ण हो उठता है ।

वस्तुत: प्रकाश के अभाव में मनुष्य की मनोवृत्ति प्रकृति-प्रवण होती है। प्रकृतिप्रेम के कारण वह दान नहीं दे पाता । परिग्रहशील होता चलता है । यह परिग्रहशीलता का स्वभाव पवित्र भावना का भी अन्त कर देता है और मनुष्य जैसे-तैसे धन जुटाने में जुट जाता है। 

भावार्थ -

हम त्यागपूर्वक उपभोग करें। हमारा जीवन पवित्रता व प्रकाश से पूर्ण हो ।

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