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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1560
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - अग्निः
छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुबुष्णिक्, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
3
भ꣣द्रं꣡ मनः꣢꣯ कृणुष्व वृत्र꣣तू꣢र्ये꣣ ये꣡ना꣢ स꣣म꣡त्सु꣢ सास꣣हिः꣢ । अ꣡व꣢ स्थि꣣रा꣡ त꣢नुहि꣣ भू꣢रि꣣ श꣡र्ध꣢तां व꣣ने꣡मा꣢ ते अ꣣भि꣡ष्ट꣢ये ॥१५६०॥
स्वर सहित पद पाठभ꣣द्र꣢म् । म꣡नः꣢꣯ । कृ꣣णुष्व । वृत्रतू꣡र्ये꣢꣯ । वृ꣣त्र । तू꣡र्ये꣢꣯ । ये꣡न꣢꣯ । स꣣म꣡त्सु꣢ । स꣣ । म꣡त्सु꣢꣯ । सा꣣सहिः꣢ । अ꣡व꣢꣯ । स्थि꣣रा꣢ । त꣣नुहि । भू꣡रि꣢꣯ । श꣡र्ध꣢꣯ताम् । व꣣ने꣡म । ते꣢ । अभि꣡ष्ट꣢ये ॥१५६०॥
स्वर रहित मन्त्र
भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये येना समत्सु सासहिः । अव स्थिरा तनुहि भूरि शर्धतां वनेमा ते अभिष्टये ॥१५६०॥
स्वर रहित पद पाठ
भद्रम् । मनः । कृणुष्व । वृत्रतूर्ये । वृत्र । तूर्ये । येन । समत्सु । स । मत्सु । सासहिः । अव । स्थिरा । तनुहि । भूरि । शर्धताम् । वनेम । ते । अभिष्टये ॥१५६०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1560
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - वासना-विजय के लिए विशिष्ट निश्चय
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि ‘सोभरि'=जीवन का उत्तम प्रकार से भरण करनेवाले के प्रति प्रभु कहते हैं१. (वृत्रतूर्ये) = वृत्रों के संहार करने योग्य संग्राम में तू (मनः भद्रम्) = मन को शुभ (कृणुष्व) = कर । अपने मन में (वृत्र) = वासना के संहार का दृढ़ निश्चय कर ले । ऐसा निश्चय किये बिना वृत्र का जीतना कठिन है। दृढ़ सङ्कल्प कर लेने पर ही वृत्र का संहार सम्भव होगा (येन) = दृढ़ निश्चय से ही (समत्सु) = संग्रामों में (सासहि:) = तू शत्रु का पराभव कर लेनेवाला होगा । दृढ़ निश्चय के बिना साधारण कार्यों में भी सफलता मिलना कठिन होता है, वृत्रतूर्य जैसे महान् कार्य में दृढ़ निश्चय के बिना सफलता कैसे मिल सकती है ?
२. (भूरि शर्धताम्) = खूब प्रबल आक्रमण करते हुए भी – अपनी शक्ति दिखाते हुए भी इन वृत्रों के (स्थिरा) = दृढ़ आस्त्रों को तू (अवतनुहि) = [Loosen, undo] ढीला कर दे। इनकी डोरी को धनुष से उतार दे, और इस प्रकार तू इनके आक्रमणों को व्यर्थ कर दे । इसपर सोभरी प्रभु से कहता है कि
(अभिष्टये) = हे प्रभो ! इन शत्रुओं का विजेता [One who assails or overpowers an enemy] बनने के लिए हम (ते) = तेरा (वनेम) = सम्भजन– सेवन करते हैं । ('त्वया स्विद् युजा वयम्') = तेरे साथ मिलकर ही तो हम इन शत्रुओं को जीत पाएँगे, अन्यथा यह कार्य हमारी शक्ति से साध्य नहीं ।
भावार्थ -
हम दृढ़ निश्चय करें तथा प्रभु के उपासक बनें और वृत्रों - वासनाओं का विनाश कर डालें ।
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