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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1580
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
4
पौ꣣रो꣡ अश्व꣢꣯स्य पुरु꣣कृ꣡द्गवा꣢꣯मस्यु꣡त्सो꣢ देव हि꣣रण्य꣡यः꣢ । न꣢ कि꣣र्हि꣡ दानं꣢꣯ परि꣣म꣡र्धि꣢ष꣣त् त्वे꣢꣫ यद्य꣣द्या꣢मि꣣ त꣡दा भ꣢꣯र ॥१५८०॥
स्वर सहित पद पाठपौ꣣रः꣢ । अ꣡श्व꣢꣯स्य । पु꣣रुकृ꣢त् । पु꣣रु । कृ꣢त् । ग꣡वा꣢꣯म् । अ꣣सि । उ꣡त्सः꣢꣯ । उत् । सः꣣ । देव । हिरण्य꣡यः꣢ । न । किः꣣ । हि꣢ । दा꣡न꣢꣯म् । प꣣रिम꣡र्धि꣢षत् । प꣣रि । म꣡र्धि꣢꣯षत् । त्वे꣡इति꣢ । य꣡द्य꣢꣯त् । यत् । य꣣त् । या꣡मि꣢꣯ । तत् । आ । भर꣣ ॥१५८०॥
स्वर रहित मन्त्र
पौरो अश्वस्य पुरुकृद्गवामस्युत्सो देव हिरण्ययः । न किर्हि दानं परिमर्धिषत् त्वे यद्यद्यामि तदा भर ॥१५८०॥
स्वर रहित पद पाठ
पौरः । अश्वस्य । पुरुकृत् । पुरु । कृत् । गवाम् । असि । उत्सः । उत् । सः । देव । हिरण्ययः । न । किः । हि । दानम् । परिमर्धिषत् । परि । मर्धिषत् । त्वेइति । यद्यत् । यत् । यत् । यामि । तत् । आ । भर ॥१५८०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1580
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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विषय - हिरण्यय उत्स
पदार्थ -
प्रभु का अनुयायी बनकर मनुष्य तेजस्वी बनता है – तेजस्वी क्या वह 'भर्ग: '= तेज ही बन जाता है। यह प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो! आप मेरी (अश्वस्य) = कर्मेन्द्रियों का (पौर:) = पूरण करनेवाले हो तथा (गवाम् पुरुकृत् असि) = ज्ञानेन्द्रियों की भी पूर्णता करनेवाले हो । ‘घोड़ों और गौवों को देनेवाले हो' यह अर्थ भी सङ्गत ही है। घोड़े शक्ति के प्रतीक हैं और गौवें ज्ञान की । प्रभु मेरी कर्मेन्द्रियों को सशक्त बनाते हैं और ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान से भरपूर । हे (देव) = ज्ञान से दीप्त प्रभो ! आप तो (हिरण्ययः उत्सः) = ज्ञानमय स्रोत हो । ज्ञान के उस स्रोतरूप प्रभु से निरन्तर ज्योति का प्रवाह चलता है और मेरे जीवन को द्योतित करता है ।
हे प्रभो ! (त्वे दानम्) = आपके इस ज्योतिर्दान को (हि) = निश्चय से (न किः परिमर्धिषत्) = कोई भी नष्ट नहीं कर सकता । प्रभु से दी गयी ज्योति को मुझसे कौन छीन सकता है ? हे प्रभो ! (यत् यत् यामि) = मैं, आपका सच्चा भक्त बनकर, जो कुछ माँगता हूँ (तत् आभार) = उसे आप मुझे प्राप्त कराइए ।
भावार्थ -
प्रभु ज्योति के स्रोत हैं, उस स्रोत में स्नान कर मैं अधिक से अधिक निर्मल व तेजस्वी बनूँ।
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