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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1604
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः
देवता - अग्निर्हवींषि वा
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
सि꣣ञ्च꣡न्ति꣢ न꣡म꣢साव꣣ट꣢मु꣣च्चा꣡च꣢क्रं꣣ प꣡रि꣢ज्मानम् । नी꣣ची꣡न꣢वार꣣म꣡क्षि꣢तम् ॥१६०४॥
स्वर सहित पद पाठसि꣣ञ्च꣡न्ति꣢ । न꣡म꣢꣯सा । अ꣣वट꣢म् । उ꣣च्चा꣡च꣢क्रम् । उ꣣च्चा꣢ । च꣣क्रम् । प꣡रि꣢꣯ज्मानम् । प꣡रि꣢꣯ । ज्मा꣣नम् । नीची꣡न꣢वारम् । नी꣣ची꣡न꣢ । वा꣣रम् । अ꣡क्षि꣢꣯तम् । अ । क्षि꣣तम् ॥१६०४॥
स्वर रहित मन्त्र
सिञ्चन्ति नमसावटमुच्चाचक्रं परिज्मानम् । नीचीनवारमक्षितम् ॥१६०४॥
स्वर रहित पद पाठ
सिञ्चन्ति । नमसा । अवटम् । उच्चाचक्रम् । उच्चा । चक्रम् । परिज्मानम् । परि । ज्मानम् । नीचीनवारम् । नीचीन । वारम् । अक्षितम् । अ । क्षितम् ॥१६०४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1604
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
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विषय - नम्रता से हृदय को सींचना
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि ‘हर्यत प्रागाथ' अवटम्-कामादि के आक्रमण से सुरक्षित अपने हृदय को (नमसा)= नम्रता से (सिञ्चन्ति) = सींच देते हैं, अर्थात् ये बड़े ही नम्र बनते हैं । कामादि शत्रुओं के विजय का भी इन्हें गर्व नहीं होता । इसे तो यह प्रभु कृपा के रूप में ही देखते हैं।
(परिज्मानम्) = [परि=चारों ओर, ज्मा=गति] इस चारों ओर भटकनेवाले हृदय को ये (उच्चाचक्रम्) = ऊर्ध्वचक्रवाला, अर्थात् ऊर्ध्वगतिवाला करते हैं । ये प्रयत्न करते हैं कि इनका हृदय इधर-उधर विषयों में न भटकता रहे, अपितु उस परम स्थान में, परमपद में प्रतिष्ठित 'परमेष्ठी' की ओर ही गतिवाला हो । (नीचीनवारम्) = नीचे की ओर द्वारोंवाले इस हृदय को (अक्षितम्) = ये अहिंसित बनाते हैं। नीचे की ओर जाना यह हृदय की प्रवृत्ति ही है । 'हर्यत' प्रयत्न करता है कि यह उन निचले द्वारों से न जाए, ऊर्ध्वगति को स्थिर रखकर सुरक्षित रहे – 'अ-क्षित' रहे ।
भावार्थ -
१. हम हृदय को नम्रता से ओतप्रोत कर दें । २. इधर-उधर भटकने की बजाय इसे प्रभु में लगाएँ। ३. इसकी निम्न प्रवृत्तियों को रोककर इसे नष्ट होने से बचाएँ।
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