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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1608
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
1
अ꣣य꣢ꣳ स꣣ह꣢स्र꣣मृ꣡षि꣢भिः꣣ स꣡ह꣢स्कृतः समु꣣द्र꣡ इ꣢व पप्रथे । स꣣त्यः꣡ सो अ꣢꣯स्य महि꣣मा꣡ गृ꣢णे꣣ श꣡वो꣢ य꣣ज्ञे꣡षु꣢ विप्र꣣रा꣡ज्ये꣢ ॥१६०८॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣य꣢म् । स꣣ह꣡स्र꣢म् । ऋ꣡षि꣢꣯भिः । स꣡ह꣢꣯स्कृतः । स꣡हः꣢꣯ । कृ꣣तः । समुद्रः꣢ । स꣣म् । उद्रः꣢ । इ꣣व । पप्रथे । सत्यः꣢ । सः । अ꣣स्य । महिमा꣢ । गृ꣣णे । श꣡वः꣢꣯ । य꣣ज्ञे꣡षु꣢ । वि꣣प्ररा꣡ज्ये꣢ । वि꣣प्र । रा꣡ज्ये꣢꣯ ॥१६०८॥
स्वर रहित मन्त्र
अयꣳ सहस्रमृषिभिः सहस्कृतः समुद्र इव पप्रथे । सत्यः सो अस्य महिमा गृणे शवो यज्ञेषु विप्रराज्ये ॥१६०८॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम् । सहस्रम् । ऋषिभिः । सहस्कृतः । सहः । कृतः । समुद्रः । सम् । उद्रः । इव । पप्रथे । सत्यः । सः । अस्य । महिमा । गृणे । शवः । यज्ञेषु । विप्रराज्ये । विप्र । राज्ये ॥१६०८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1608
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - सहस्रगुणित शक्ति
पदार्थ -
(अयम्) = यह प्रभु ही (ऋषिभिः) = तत्त्वद्रष्टाओं से (सहस्त्रं सहस्कृतः) = अपना सहस्रगुणित बल बनाया गया है। वस्तुतः मनुष्य की तो शक्ति ही क्या है, जो वह काम-क्रोधादि शत्रुओं से संघर्ष करके विजय पा ले। ('त्वया स्विद् युजा वयम्') प्रभु से मिलकर ही वह विजय पा सकता है। वस्तुत: कामादि का संहार प्रभु की शक्ति से होता है। प्रभु के स्मरण से अल्प-सामर्थ्य जीव को एक महान् शक्ति प्राप्त होती है और वह इन वासनाओं पर काबू पाने में समर्थ होता है । यह प्रभु तो (समुद्रः इव) = समुद्र के समान (पप्रथे) = विस्तृत हैं – प्रभु की शक्ति सर्वत्र है । उसी शक्ति से शक्तिसम्पन्न होकर जीव विजय प्राप्त कर पाएगा। काम ‘प्रद्युम्न' है— प्रकृष्ट बलवाला है। उसके विजय के लिए प्रभु के बल से ही जीव को बलवाला होना होगा। (अस्य) = इस प्रभु की (सः महिमा) = वह महिमा (सत्यः) = सत्य है, (गृणे) = मैं इस महिमा का स्तवन करता हूँ ।
‘विप्रैः समृद्धं राज्यं विप्रराज्यम्' = ब्राह्मणों से समृद्ध बनाया गया राज्य ‘विप्रराज्य' कहलाता है।‘ब्रह्म क्षत्रम् ऋध्नोति' वही राज्य फूलता-फलता है जिसका मूल ब्राह्मण होते हैं । ब्राह्मण क्षत्रियों को धर्म-मार्ग से विचलित नहीं होने देते । (विप्रराज्ये) = इन विप्रराज्यों में (यज्ञेषु) = ज्ञान-यज्ञों में तथा विविध क्रतुओं [हवनों] के प्रसङ्ग पर (अस्य शवः) = इस प्रभु के बल की स्तुति की जाती है। यज्ञों के अवसर पर प्रभु की महिमा का वर्णन होता है । इस स्तुति के द्वारा स्तोता प्रभु के बल को अपने में अवतीर्ण करता है और अपनी शक्ति को सहस्रगुणित हुआ अनुभव करता है । जब यह शक्ति का समुद्र उसके अन्दर उमड़ता है तभी वह कामादि शत्रुओं का संहार करने में समर्थ होता है ।
भावार्थ -
प्रभु के बल की महिमा के स्तवन से मैं अपनी शक्ति को सहस्रगुणित करनेवाला बनूँ। ‘मेघातिथि'=समझदार को यही उचित है।
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