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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1608
    ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    71

    अ꣣य꣢ꣳ स꣣ह꣢स्र꣣मृ꣡षि꣢भिः꣣ स꣡ह꣢स्कृतः समु꣣द्र꣡ इ꣢व पप्रथे । स꣣त्यः꣡ सो अ꣢꣯स्य महि꣣मा꣡ गृ꣢णे꣣ श꣡वो꣢ य꣣ज्ञे꣡षु꣢ विप्र꣣रा꣡ज्ये꣢ ॥१६०८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣य꣢म् । स꣣ह꣡स्र꣢म् । ऋ꣡षि꣢꣯भिः । स꣡ह꣢꣯स्कृतः । स꣡हः꣢꣯ । कृ꣣तः । समुद्रः꣢ । स꣣म् । उद्रः꣢ । इ꣣व । पप्रथे । सत्यः꣢ । सः । अ꣣स्य । महिमा꣢ । गृ꣣णे । श꣡वः꣢꣯ । य꣣ज्ञे꣡षु꣢ । वि꣣प्ररा꣡ज्ये꣢ । वि꣣प्र । रा꣡ज्ये꣢꣯ ॥१६०८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयꣳ सहस्रमृषिभिः सहस्कृतः समुद्र इव पप्रथे । सत्यः सो अस्य महिमा गृणे शवो यज्ञेषु विप्रराज्ये ॥१६०८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । सहस्रम् । ऋषिभिः । सहस्कृतः । सहः । कृतः । समुद्रः । सम् । उद्रः । इव । पप्रथे । सत्यः । सः । अस्य । महिमा । गृणे । शवः । यज्ञेषु । विप्रराज्ये । विप्र । राज्ये ॥१६०८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1608
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर परमात्मा और आचार्य का विषय है।

    पदार्थ

    (अयम्) यह परमेश्वर वा आचार्य (सहस्रम्) सहस्र बार (ऋषिभिः) तत्वदर्शी जनों द्वारा (सहस्कृतः) बल के साथ स्तुति किया गया (समुद्रः इव) समुद्र के समान (पप्रथे) यश से प्रख्यात होता है। (सः) वह (अस्य) इस परमेश्वर वा आचार्य की (महिमा) महिमा (सत्यः) सत्य है। मैं (विप्रराज्ये) विद्वानों के राज्य में (यज्ञेषु) उपासना-यज्ञों वा शिक्षा-यज्ञों में (शवः) इसके बल की (गृणे) स्तुति करता हूँ ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे समुद्र जल से विस्तीर्ण होता है, वैसे ही जगदीश्वर और आचार्य यश से प्रख्यात होते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (अयम्) यह इन्द्र—ऐश्वर्यवान् परमात्मा (सहस्रम्-ऋषिभिः) सब१ ऋषियों अमृत उपासकों द्वारा (सहस्कृतः) आत्मबल से साक्षात् किया हुआ (समुद्रः-इव पप्रथे) उनके अन्दर समुद्र के समान विस्तृत हो गया (अस्य सः सत्यः-महिमा) इसका यह यथार्थ स्थिर महत्त्व है (विप्रराज्ये) स्तुतिकर्ताजनों के धर्म में२ वर्तमान (यज्ञेषु) अध्यात्मयज्ञ में—योगाङ्गों में उसके (शवः-गृणे) बलगुणों की मैं प्रशंसा करूँ—करता हूँ॥२॥

    विशेष

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    विषय

    सहस्रगुणित शक्ति

    पदार्थ

    (अयम्) = यह प्रभु ही (ऋषिभिः) = तत्त्वद्रष्टाओं से (सहस्त्रं सहस्कृतः) = अपना सहस्रगुणित बल बनाया गया है। वस्तुतः मनुष्य की तो शक्ति ही क्या है, जो वह काम-क्रोधादि शत्रुओं से संघर्ष करके विजय पा ले। ('त्वया स्विद् युजा वयम्') प्रभु से मिलकर ही वह विजय पा सकता है। वस्तुत: कामादि का संहार प्रभु की शक्ति से होता है। प्रभु के स्मरण से अल्प-सामर्थ्य जीव को एक महान् शक्ति प्राप्त होती है और वह इन वासनाओं पर काबू पाने में समर्थ होता है । यह प्रभु तो (समुद्रः इव) = समुद्र के समान (पप्रथे) = विस्तृत हैं – प्रभु की शक्ति सर्वत्र है । उसी शक्ति से शक्तिसम्पन्न होकर जीव विजय प्राप्त कर पाएगा। काम ‘प्रद्युम्न' है— प्रकृष्ट बलवाला है। उसके विजय के लिए प्रभु के बल से ही जीव को बलवाला होना होगा। (अस्य) = इस प्रभु की (सः महिमा) = वह महिमा (सत्यः) = सत्य है, (गृणे) = मैं इस महिमा का स्तवन करता हूँ ।

    ‘विप्रैः समृद्धं राज्यं विप्रराज्यम्' = ब्राह्मणों से समृद्ध बनाया गया राज्य ‘विप्रराज्य' कहलाता है।‘ब्रह्म क्षत्रम् ऋध्नोति' वही राज्य फूलता-फलता है जिसका मूल ब्राह्मण होते हैं । ब्राह्मण क्षत्रियों को धर्म-मार्ग से विचलित नहीं होने देते । (विप्रराज्ये) = इन विप्रराज्यों में (यज्ञेषु) = ज्ञान-यज्ञों में तथा विविध क्रतुओं [हवनों] के प्रसङ्ग पर (अस्य शवः) = इस प्रभु के बल की स्तुति की जाती है। यज्ञों के अवसर पर प्रभु की महिमा का वर्णन होता है । इस स्तुति के द्वारा स्तोता प्रभु के बल को अपने में अवतीर्ण करता है और अपनी शक्ति को सहस्रगुणित हुआ अनुभव करता है । जब यह शक्ति का समुद्र उसके अन्दर उमड़ता है तभी वह कामादि शत्रुओं का संहार करने में समर्थ होता है । 

    भावार्थ

    प्रभु के बल की महिमा के स्तवन से मैं अपनी शक्ति को सहस्रगुणित करनेवाला बनूँ। ‘मेघातिथि'=समझदार को यही उचित है।

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    विषय

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    भावार्थ

    (अयं) वह आत्मा और परमात्मा (सहस्रं) हजारों (ऋषिभिः) मन्त्रार्थ द्रष्टा तत्वज्ञानियों और अतीन्द्रिय अर्थ के दर्शन करने हारे परम योगियों द्वारा (सहस्कृतः) बल से युक्त, बलवान्, तीव्र, सब दुःखों पर विजयी किया जाकर (समुद्रः इव) रसधाराओं, आनन्दतरंगों को ऊपर उमड़ाने वाले समुद्र के समान (पप्रथे) विस्तार को प्राप्त हो जाता है अर्थात् आनन्द सागर के समान उमड़ पड़ता है। (अस्य) इस आत्मा की (सः) वह (महिमा) महिमा (सत्यः) सत्य है और (विप्रराज्ये) मेधावी विद्वानों के राज्य, अधिकार, शासन, शिक्षण में और (यज्ञेषु) धर्म कर्मों में (अस्य) इस आत्मा के ही (शवः) बल की (गृणे) महिमा का वर्णन करूं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ८, १८ मेध्यातिथिः काण्वः। २ विश्वामित्रः। ३, ४ भर्गः प्रागाथः। ५ सोभरिः काण्वः। ६, १५ शुनःशेप आजीगर्तिः। ७ सुकक्षः। ८ विश्वकर्मा भौवनः। १० अनानतः। पारुच्छेपिः। ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः १२ गोतमो राहूगणः। १३ ऋजिश्वा। १४ वामदेवः। १६, १७ हर्यतः प्रागाथः देवातिथिः काण्वः। १९ पुष्टिगुः काण्वः। २० पर्वतनारदौ। २१ अत्रिः॥ देवता—१, ३, ४, ७, ८, १५—१९ इन्द्रः। २ इन्द्राग्नी। ५ अग्निः। ६ वरुणः। ९ विश्वकर्मा। १०, २०, २१ पवमानः सोमः। ११ पूषा। १२ मरुतः। १३ विश्वेदेवाः १४ द्यावापृथिव्यौ॥ छन्दः—१, ३, ४, ८, १७-१९ प्रागाथम्। २, ६, ७, ११-१६ गायत्री। ५ बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० अत्यष्टिः। २० उष्णिक्। २१ जगती॥ स्वरः—१, ३, ४, ५, ८, १७-१९ मध्यमः। २, ६, ७, ११-१६ षड्जः। ९ धैवतः १० गान्धारः। २० ऋषभः। २१ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि परमात्माऽऽचार्ययोर्विषयमाह।

    पदार्थः

    (अयम्) एष (परमेश्वरः) आचार्यो वा (सहस्रम्) सहस्रवारम् (ऋषिभिः) तत्त्वदर्शिभिर्जनैः (सहस्कृतः) सहसा बलेन कृतः स्तुतः सन् (समुद्रः इव) सागरः इव (पप्रथे) यशसा प्रथितो भवति। (सः) असौ (अस्य) परमेश्वरस्य आचार्यस्य वा (महिमा) महत्त्वम् (सत्यः) अवितथो वर्तते। अहम् (विप्रराज्ये) विप्राणां विपश्चितां राज्ये (यज्ञेषु) उपासनायज्ञेषु शिक्षायज्ञेषु वा, (शवः) अस्य बलम् (गृणे) स्तौमि। [विप्रराज्ये इत्यत्र ‘अकर्मधारये राज्यम्’। अ० ६।२।१३० इत्युत्तरपदादिरुदात्तः] ॥२॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    यथा समुद्रो जलेन विस्तीर्णो भवति तथा जगदीश्वर आचार्यश्च यशसा ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This God, Whom thousands of Rishis resort to for spiritual power, is infinite like an ocean. True is His greatness. I admire His power on occasions of sacrifices (Yajnas) and for the spread of the light of knowledge.

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    Meaning

    This Indra, adored and exalted by poets and sages a thousand ways to power and glory, rises like the sea. Ever true and inviolable is he, and I celebrate his might and grandeur expanding in the yajnic programmes of the dominion of the wise. (Rg. 8-3-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अयम्) એ ઇન્દ્ર-ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા (सहस्रम् ऋषिभिः) સમસ્ત ૠષિઓ અમૃત ઉપાસકો દ્વારા (सहस्कृतः) આત્મબળથી સાક્ષાત્ કરેલ (समुद्रः इव पप्रथे) તેઓની અંદર સમુદ્રની સમાન વિસ્તૃત થઈ ગયો (अस्य सः सत्यः महिमा) એનું એ યથાર્થ સ્થિર મહત્ત્વ છે. (विप्रराज्ये) સ્તુતિકર્તાજનોના ધર્મમાં રહેલ (यज्ञेषु) અધ્યાત્મયજ્ઞમાં - યોગાંગોમાં તેના (शवः गृणे) બળ ગુણોની હું પ્રશંસા કરું-કરું છું. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा समुद्र जलाने विस्तीर्ण असतो, तसेच जगदीश्वर व आचार्य यशाने प्रसिद्ध होतात. ॥२॥

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