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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1609
ऋषिः - वालखिल्यः (श्रुष्टिगुः काण्वः)
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
3
य꣢स्या꣣यं꣢꣫ विश्व꣣ आ꣢र्यो꣣ दा꣡सः꣢ शेवधि꣣पा꣢ अ꣣रिः꣢ । ति꣣र꣡श्चि꣢द꣣र्ये꣢ रु꣣श꣢मे꣣ प꣡वी꣢रवि꣣ तु꣡भ्येत्सो अ꣢꣯ज्यते र꣣यिः꣢ ॥१६०९॥
स्वर सहित पद पाठय꣡स्य꣢꣯ । अ꣣य꣢म् । वि꣡श्वः꣢꣯ । आ꣡र्यः꣢꣯ । दा꣡सः꣢꣯ । शे꣣वधिपाः꣢ । शे꣣वधि । पाः꣢ । अ꣡रिः꣢꣯ । ति꣣रः꣢ । चि꣣त् । अर्ये꣢ । रु꣣श꣡मे꣢ । प꣡वी꣢꣯रवि । तु꣡भ्य꣢꣯ । इत् । सः । अ꣣ज्यते । रयिः꣢ ॥१६०९॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्यायं विश्व आर्यो दासः शेवधिपा अरिः । तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत्सो अज्यते रयिः ॥१६०९॥
स्वर रहित पद पाठ
यस्य । अयम् । विश्वः । आर्यः । दासः । शेवधिपाः । शेवधि । पाः । अरिः । तिरः । चित् । अर्ये । रुशमे । पवीरवि । तुभ्य । इत् । सः । अज्यते । रयिः ॥१६०९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1609
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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विषय - तिरोहित प्रभु का व्यञ्जन [प्रकाश]
पदार्थ -
(यस्य) = जिस प्रभु का (अयम्) = यह (विश्वा:) = सारा ही संसार है; चाहे वह (आर्य:) = ब्राह्मण है— ज्ञान-प्रधान जीवन बितानेवाले हैं, चाहे (दासः) = वे शत्रुओं का नाश करनेवाले क्षत्रिय [those who destroy the enemy] हैं, चाहे (शेवधिपाः) = खजाने की रक्षा करनेवाले वैश्य हैं और चाहे (अरि:) = [ऋ गतौ] निरन्तर श्रम में लगे शूद्र हैं। सभी व्यक्ति प्रभु के हैं, उस प्रभु का किसी के प्रति पक्षपात नहीं । वह प्रभुरूप सम्पत्ति तो हम सबके हृदयरूप कोशों में तिर:-छिपी पड़ी है। (सः) = वह (तिरश्चित् रयिः) = छिपे रूप में पड़ी हुई सम्पत्ति (तुभ्य इत् अज्यते) = तेरे ही लिए व्यक्त की जाती है, किस तेरे लिए
१. (अर्ये) = जितेन्द्रिय के लिए | (अर्यः) = [स्वामी] जो इन्द्रियों का दास न बनकर इन्द्रियों का स्वामी बनता है ।
२. (रुशमे) = जितेन्द्रिय [bright] बनकर शक्ति के संयम से चमकनेवाले के लिए (रुशमे) = वह शक्ति तेरी ज्ञानाग्नि का ईंधन बन जाती है ।
३. (पवीरवि) = जो तू इस शक्ति के संयम से ही वज्र-तुल्य शरीरवाले के लिए [पवीरं = वज्र, रु= वज्र - तुल्य शरीरवाला] ।
प्रभु सर्वव्यापकता के नाते सब स्थानों पर विद्यमान हैं, हमारे शरीरों में भी प्रभु की सत्ता है, परन्तु प्रभु का दर्शन उसी को होता है जो अर्य- जितेन्द्रिय बनकर अपनी शक्ति द्वारा ज्ञानग्नि को समृद्ध करके [रुशम] बनता है और वज्रतुल्य शरीरवाला [पवीरु] होता है।
इस व्यक्ति की इन्द्रियाँ कभी क्षीणशक्ति नहीं होती, वह सदा पुष्ट गौवों - इन्द्रियोंवाला होने से 'पुष्टिगु' कहलाता है ।
भावार्थ -
मैं अन्दर छिपे प्रभु को ढूँढनेवाला बनूँ ।
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