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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1610
ऋषिः - वालखिल्यः (श्रुष्टिगुः काण्वः) देवता - इन्द्रः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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तु꣣रण्य꣢वो꣣ म꣡धु꣢मन्तं घृत꣣श्चु꣢तं꣣ वि꣡प्रा꣢सो अ꣣र्क꣡मा꣢नृचुः । अ꣣स्मे꣢ र꣣यिः꣡ प꣢प्रथे꣣ वृ꣢ष्ण्य꣣ꣳ श꣢वो꣣ऽस्मे꣢ स्वा꣣ना꣢स꣣ इ꣡न्द꣢वः ॥१६१०॥

स्वर सहित पद पाठ

तु꣣रण्य꣡वः꣢ । म꣡धु꣢꣯मन्तम् । घृ꣣तश्चु꣡त꣢म् । घृ꣣त । श्चु꣡त꣢꣯म् । वि꣡प्रा꣢꣯सः । वि । प्रा꣣सः । अ꣢र्कम् । आ꣣नृचुः । अस्मे꣡इति꣢ । र꣣यिः꣢ । प꣣प्रथे । वृ꣡ष्ण्य꣢꣯म् । श꣡वः꣢꣯ । अ꣣स्मे꣡इति꣢ । स्वा꣣ना꣡सः꣢ । इ꣡न्द꣢꣯वः ॥१६१०॥


स्वर रहित मन्त्र

तुरण्यवो मधुमन्तं घृतश्चुतं विप्रासो अर्कमानृचुः । अस्मे रयिः पप्रथे वृष्ण्यꣳ शवोऽस्मे स्वानास इन्दवः ॥१६१०॥


स्वर रहित पद पाठ

तुरण्यवः । मधुमन्तम् । घृतश्चुतम् । घृत । श्चुतम् । विप्रासः । वि । प्रासः । अर्कम् । आनृचुः । अस्मेइति । रयिः । पप्रथे । वृष्ण्यम् । शवः । अस्मेइति । स्वानासः । इन्दवः ॥१६१०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1610
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

(तुरण्यवः) = [तूर्णमश्नुतेऽध्वानम् ] शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाले (विप्रासः) = विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले ज्ञानी उस प्रभु का (आनृचुः) = पूजन करते हैं, जो – १. (मधुमन्तम्) = माधुर्यवाले हैं— प्रभु क्रोधादि दुर्गुणों से दूर होने के कारण ही 'निर्गुण' संज्ञावाले हैं। प्रभु के उपासक को भी यथासम्भव संसार को माधुर्यवाला बनाने का प्रयत्न करना चाहिए । २. (घृतश्च्युतम्) = दीप्ति टपकानेवाले हैं । जिसे भी प्रभु-दर्शन होता है, उसका हृदय प्रकाश से दीप्त हो जाता है । ३. (अर्कम्) = वे प्रभु मन्त्रों के पुञ्ज हैं। [अर्को मन्त्रः] वेदज्ञानरूप हैं । विशद्धाचित् होते हुए ज्ञानस्वरूप हैं। प्रभुभक्त ने भी इन मन्त्रों को अधिगत करके अपने को ज्ञानस्वरूप बनाना है ।

जब हम 'तुरण्यु' = अनालस्य से कर्म करनेवाले तथा 'विप्र' विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले होते हैं तब (अस्मे)  = हममें (रयिः पप्रथे) = धन का विस्तार होता है, (वृष्ण्यं शवः) = आनन्द की वर्षा करनेवाला बल विस्तृत होता है और (अस्मे) = हममें (इन्दवः स्वानासः) = ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले शक्ति-सम्पन्न वेदशब्दों का विस्तार होता है। एक सच्चे भक्त को धन, बल तथा विद्या तीनों ही प्राप्त होते हैं । प्रभुभक्त वही है जो माधुर्यवाला, प्रकाश को फैलानेवाला वा ज्ञान का पुञ्ज बनता है। ये

प्रभुभक्त तो स्वाभाविकरूप से 'पुष्टिगु' होते हैं । इनकी इन्द्रियशक्ति ने क्या क्षीण होना? ये तो वासनाओं से शतश: कोस दूर होते हैं ।

भावार्थ -

मैं ‘तुरण्यु' कर्मशील [active] व 'विप्र' बनकर सच्चा प्रभुभक्त बनूँ।
 

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