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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1617
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
वि꣡श्वे꣢भिरग्ने अ꣣ग्नि꣡भि꣢रि꣣मं꣢ य꣣ज्ञ꣢मि꣣दं꣡ वचः꣢꣯ । च꣡नो꣢ धाः सहसो यहो ॥१६१७॥
स्वर सहित पद पाठवि꣡श्वे꣢꣯भिः । अ꣣ग्ने । अग्नि꣡भिः꣣ । इ꣣म꣢म् । य꣣ज्ञ꣢म् । इ꣣द꣢म् । व꣡चः꣢꣯ । च꣡नः꣢꣯ । धाः꣣ । सहसः । यहो ॥१६१७॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वेभिरग्ने अग्निभिरिमं यज्ञमिदं वचः । चनो धाः सहसो यहो ॥१६१७॥
स्वर रहित पद पाठ
विश्वेभिः । अग्ने । अग्निभिः । इमम् । यज्ञम् । इदम् । वचः । चनः । धाः । सहसः । यहो ॥१६१७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1617
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - यज्ञ, ज्ञान व सन्तोष
पदार्थ -
प्रभु अग्नि हैं—अग्रेणी हैं- हम सबको आगे ले-चलनेवाले हैं, उनसे प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'शुन:शेप' [जो अपने जीवन में सुख का निर्माण करना चाहता है] प्रार्थना करता है कि -
हे (अग्ने) = अग्रगति के साधक प्रभो! आप (विश्वेभिः) = सब (अग्निभिः) = अग्नियों से [माता= दक्षिणाग्नि, पिता=गार्हपत्याग्नि, आचार्य = आहवनीयाग्नि], अर्थात् उन्नति-पथ पर ले-चलनेवाले माता-पिता व आचार्य के द्वारा इमं यज्ञम् = इस यज्ञ को इदं वचः - इस वेदवाणी को तथा चन:= सन्तोष व आनन्द की [Delight, satisfaction] वृत्ति को धा:- हममें धारण कीजिए। हे प्रभो! आप सहसः=बल के यहो= सन्तान हैं, अर्थात् बल के पुञ्ज हैं अथवा बलवान् से ही आप उपलभ्य होने योग्य हैं। इस बल को प्राप्त करने के लिए मैं अपने में यज्ञिय भावना को धारण करके विलास की वृत्ति से ऊपर उठू, व्यसनों से बचूँ तथा सन्तोष व सुख को धारण करता हुआ बल को क्षीण करनेवाली चिन्ता व असन्तोष की वृत्तियों से ऊपर उहूँ ।
माता-पिता व आचार्य अग्नि हैं— आगे ले-चलनेवाले हैं। इनका कर्त्तव्य है कि सन्तान व विद्यार्थी में यज्ञ, ज्ञान व सन्तोष की भावना को भर दें। इससे ये सदा सबल बने रहेंगे और परमात्माप्राप्ति के अधिकारी बनेंगे । इसी प्रकार हमारा जीवन सुखी बन पाएगा। स्वार्थ, मूर्खता व असन्तोष ही सब दु:खों के मूल हैं। यज्ञ-विरोधी भावना स्वार्थ है, ज्ञानविरोधी भावना मूर्खता है, सन्तोष का विरोधी असन्तोष है । इन 'स्वार्थ, मूर्खता व असन्तोष' को दूर करके हम अपने जीवनों को सुखी बनाते हैं—और दूसरे शब्दों में 'शुनः शेप' बनते हैं। यही इस मन्त्र का ऋषि है।
भावार्थ -
हम यज्ञ, ज्ञान व सन्तोष को अपनाएँ । हाथों से यज्ञ करें, मस्तिष्क ज्ञानपूर्ण हो तथा हृदय सन्तोष की वृत्तिवाला हो ।