Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1620
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
2

इ꣡न्द्रं꣢ वो वि꣣श्व꣢त꣣स्प꣢रि꣣ ह꣡वा꣢महे꣣ ज꣡ने꣢भ्यः । अ꣣स्मा꣡क꣢मस्तु꣣ के꣡व꣢लः ॥१६२०॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्र꣢꣯म् । वः꣣ । विश्व꣡तः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । ह꣡वा꣢꣯महे । ज꣡ने꣢꣯भ्यः । अ꣣स्मा꣡क꣢म् । अ꣣स्तु । के꣡व꣢꣯लः ॥१६२०॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रं वो विश्वतस्परि हवामहे जनेभ्यः । अस्माकमस्तु केवलः ॥१६२०॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रम् । वः । विश्वतः । परि । हवामहे । जनेभ्यः । अस्माकम् । अस्तु । केवलः ॥१६२०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1620
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment

पदार्थ -

मधुच्छन्दा: [अत्यन्त मधुर इच्छाओंवाला, प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि] कहता है कि हम तो (विश्वतः) = सब दृष्टिकोणों से—क्या अभ्युदय व क्या निःश्रेयस — दोनों के ही विचार से (जनेभ्यः परि) = मनुष्यों को छोड़कर [परि=वर्जन, वर्जनार्थक परि के योग में ही ‘जनेभ्य:' यह पञ्चमी है] (वः इन्द्रम्) = तुम सबके परमैश्वर्यदाता प्रभु को ही (हवामहे) = पुकारते हैं और चाहते हैं कि (अस्माकम्) = हमारा तो (केवल: अस्तु) = वह प्रभु ही एकमात्र हव्य व उपास्य हो । हम प्रभु के साथ किसी अन्य की उपासना को न जोड़ दें । 

मन्त्र में ‘केवल:’ शब्द का प्रयोग है— अकेले प्रभु की उपासना नकि उसके साथ गुरु की भी । ‘जनेभ्यः परि’ मनुष्यों को छोड़कर हम केवल प्रभु की उपासना करते हैं। मनुष्य की उपासना आई और प्रभु की उपासना गयी। धर्म ‘धर्म' न रहा, वह सम्प्रदाय बन गया । मधुच्छन्दा कहता है कि 'हम तो केवल प्रभु की उपासना करते हैं।'

भावार्थ -

हम सब एक प्रभु की पूजावाले बनकर एक हो जाएँ । 'य एक इद्धव्यश्चर्षणीनाम्' - इस वेदोपदेश को सुनें कि 'वह प्रभु ही एकमात्र मनुष्यों का उपास्य है।'

इस भाष्य को एडिट करें
Top