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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1631
ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
5
अ꣡ध꣢ क्ष꣣पा꣡ परि꣢꣯ष्कृतो꣣ वा꣡जा꣢ꣳ अ꣣भि꣡ प्र गा꣢꣯हसे । य꣡दी꣢ वि꣣व꣡स्व꣢तो꣣ धि꣢यो꣣ ह꣡रि꣢ꣳ हि꣣न्व꣢न्ति꣣ या꣡त꣢वे ॥१६३१॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ध꣢꣯ । क्ष꣣पा꣢ । प꣡रि꣢꣯ष्कृतः । प꣡रि꣢꣯ । कृ꣣तः । वा꣡जा꣢꣯न् । अ꣡भि꣢ । प्र । गा꣣हसे । य꣡दि꣢꣯ । वि꣣व꣡स्व꣢तः । वि꣣ । व꣡स्व꣢꣯तः । धि꣡यः꣢꣯ । ह꣡रि꣢꣯म् । हि꣣न्व꣡न्ति꣢ । या꣡त꣢꣯वे ॥१६३१॥
स्वर रहित मन्त्र
अध क्षपा परिष्कृतो वाजाꣳ अभि प्र गाहसे । यदी विवस्वतो धियो हरिꣳ हिन्वन्ति यातवे ॥१६३१॥
स्वर रहित पद पाठ
अध । क्षपा । परिष्कृतः । परि । कृतः । वाजान् । अभि । प्र । गाहसे । यदि । विवस्वतः । वि । वस्वतः । धियः । हरिम् । हिन्वन्ति । यातवे ॥१६३१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1631
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - व्रतों से शरीर-नैर्मल्य
पदार्थ -
'क्षप्' धातु का अर्थ व्रत करना तथा कई वस्तुओं से अपने को अलग रखना [ to fast, to be abstinent] है। गत मन्त्र में सोमपान का उल्लेख था । उसका प्रबल इच्छुक क्या करता है ? (अध) = सबसे प्रथम तो (क्षपा) = व्रतों के द्वारा (परिष्कृतः) = परिशुद्ध शरीरवाला हुआ हुआ तू (वाजान्) = शक्तियों का (अभिप्रगाहसे) = आलोडन करता है । व्रतों से शरीर के सब मल नष्ट होकर कायाकल्प-सा हो जाता है और शरीर में नवशक्ति का संचार हो जाता है ।
(यत ई) = और निश्चय से यह व्रत करनेवाला (विवस्वतः) = सूर्य से - सूर्य के समान प्रकाशमय मस्तिष्कवाले आचार्य से (धियः) = ज्ञानों को [अभिप्रगाहसे] = प्राप्त करता है । 'विवस्वतः' यह पञ्चमी विभक्ति नियमपूर्वक ज्ञान की प्राप्ति का संकेत कर रही है ।
ये नवशक्ति-सम्पन्न शरीरवाले व्यक्ति (यातवे) = राक्षसों के लिए, आसुरी वृत्तियों को दूर करने के लिए [मशकाय धूम:- मशक निवृत्ति के लिए धुँआ है] (हरिः) = उस सब दुःखहरणशील प्रभु को (हिन्वन्ति) = प्राप्त होते हैं। उस प्रभु की स्तुति करते हैं। प्रभु की स्तुति करने के कारण ही ये ‘रेभ'=स्तोता कहलाते हैं। सदा उत्तम प्रेरणा को सुननेवाले होने से ‘सूनु' नामवाले होते हैं । 'रेभः सूनु' ही इस मन्त्र का ऋषि है। प्रभु-स्मरण के कारण इनके पास आसुरी वृत्तियाँ फटकतीं ही नहीं।
भावार्थ -
हम व्रतों से परिष्कृत जीवनवाले बनकर- -१. शक्ति का सम्पादन करें २. ज्ञान में सूर्य के समान चमकें तथा ३. आसुर वृत्तियों को दूर करने के लिए प्रभु का स्मरण करें ।
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