Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1645
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
3
त꣢व꣣ त्य꣡दि꣢न्द्रि꣣यं꣢ बृ꣣ह꣢꣫त्तव꣣ द꣡क्ष꣢मु꣣त꣡ क्रतु꣢꣯म् । व꣡ज्र꣢ꣳ शिशाति धि꣣ष꣢णा꣣ व꣡रे꣢ण्यम् ॥१६४५॥
स्वर सहित पद पाठत꣡व꣢꣯ । त्यत् । इ꣣न्द्रिय꣢म् । बृ꣣ह꣢त् । त꣡व꣢꣯ । द꣡क्ष꣢꣯म् । उ꣡त꣢ । क्र꣡तु꣢꣯म् । व꣡ज्र꣢꣯म् । शि꣣शाति । धिष꣡णा꣢ । व꣡रे꣢꣯ण्यम् ॥१६४५॥
स्वर रहित मन्त्र
तव त्यदिन्द्रियं बृहत्तव दक्षमुत क्रतुम् । वज्रꣳ शिशाति धिषणा वरेण्यम् ॥१६४५॥
स्वर रहित पद पाठ
तव । त्यत् । इन्द्रियम् । बृहत् । तव । दक्षम् । उत । क्रतुम् । वज्रम् । शिशाति । धिषणा । वरेण्यम् ॥१६४५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1645
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
Acknowledgment
विषय - इन्द्रिय, दक्ष, क्रतु व वज्र
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘गोषूक्ति व अश्वसूक्ति' है- जिसकी ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ दोनों ही उत्तम प्रकार से वेदवाणी का प्रतिपादन करती हैं, अर्थात् जो ज्ञानेन्द्रियों से उन्हें पढ़ता है और कर्मेन्द्रियों से उनका आचरण करता है । वेदवाणी का अध्ययन करते हुए यह अनुभव करता है कि (धिषणा) = यह वेदवाणी [धिषणा=वाङ्नाम] हे प्रभो ! (तव) = तेरे (त्यत्) = उस प्रसिद्ध (बृहत् इन्द्रियम्) = वृद्ध इन्द्रियशक्ति को (शिशाति) = तीव्र करती है, अर्थात् प्रबल व सूक्ष्मरूप से वर्णन करती है। यह प्रभु इन भौतिक इन्द्रियों से रहित होता हुआ भी किस प्रकार (‘विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात्') सर्वत्र आँख, मुख, बाहु व पाँववाला है— इस बात का यह वेदवाणी प्रतिपादन कर रही है। सर्वेन्द्रियविवर्जित होते हुए भी वे प्रभु सर्वेन्द्रियगुणों के आभासवाले हैं।
१. (तव बृहत् दक्षम्) = हे प्रभो ! यह वेदवाणी तेरे उस सदा वृद्ध बल का वर्णन करती है । इस संसार के धारण करनेवाले प्रभु का बल किस प्रकार अनन्त होगा ?
२. (उत क्रतुम्) = यह वेदवाणी तेरे इस महान् सृष्टिरूप कर्म का भी वर्णन करती है [उत= भी, क्रतु= कर्म ]
३. और अन्त में (वरेण्यम् वज्रम्) = वरणीय क्रियाशीलता का यह प्रतिपादन करती है [वज गतौ]। प्रभु की क्रिया स्वाभाविक है, अर्थात् उसका अपना कोई स्वार्थ इसमें निहित हो ऐसी बात नहीं है। स्तोता को भी चाहिए कि वह क्रिया को अपने लिए स्वाभाविक बनाये ।
भावार्थ -
वेदवाणी के अध्ययन से हम प्रभु की दर्शनादि शक्ति, बल व कर्म को तथा वरणीय नि:स्वार्थ क्रियाशीलता को जानें और उसकी महिमा के प्रति नतमस्तक हों। उन गुणों को हम भी धारण करने का प्रयत्न करें ।