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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1647
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
4
त्वां꣡ विष्णु꣢꣯र्बृ꣣ह꣡न्क्षयो꣢꣯ मि꣣त्रो꣡ गृ꣢णाति꣣ व꣡रु꣢णः । त्वा꣡ꣳ शर्धो꣢꣯ मद꣣त्य꣢नु꣣ मा꣡रु꣢तम् ॥१६४७॥
स्वर सहित पद पाठत्वा꣢म् । वि꣡ष्णुः꣢꣯ । बृ꣡ह꣢न् । क्ष꣡यः꣢꣯ । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । गृ꣣णाति । व꣡रु꣢꣯णः । त्वाम् । श꣡र्धः꣢꣯ । म꣣दति । अ꣡नु꣢꣯ । मा꣡रु꣢꣯तम् ॥१६४७॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां विष्णुर्बृहन्क्षयो मित्रो गृणाति वरुणः । त्वाꣳ शर्धो मदत्यनु मारुतम् ॥१६४७॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वाम् । विष्णुः । बृहन् । क्षयः । मित्रः । मि । त्रः । गृणाति । वरुणः । त्वाम् । शर्धः । मदति । अनु । मारुतम् ॥१६४७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1647
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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विषय - सूर्य, अन्तरिक्ष, दिन-रात तथा वायु
पदार्थ -
गोषूक्ति ही कह रहा है कि- (त्वाम्) = आपको (विष्णुः) = यह आदित्य [श० १४.१.१.६] (बृहन् क्षयः) = विशाल निवासस्थानभूत यह अन्तरिक्ष (मित्रः वरुणः) = दिन तथा रात [अह वै मित्र: रात्रिर्वरुणः ऐ० ४.१०] अथवा शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष [य एव आपूर्यते स वरुणः, योऽपक्षीयते स मित्रः— श० २.४.४.१८] (गृणाति) = गा रहे हैं, ये सबके सब आपका ही उपदेश दे रहे हैं, (मारुतं शर्धः) = वायु सम्बन्धी बल भी (त्वाम् अनु) = आपकी शक्ति से ही शक्तिसम्पन्न होकर (मदति) = आनन्द को प्राप्त करा रहा है।‘वायु का प्रवाह' जीवन देता हुआ किस प्रकार आनन्दित करता है यह तो अनुभव का ही विषय है। उस आनन्द को नुभव करनेवाला व्यक्ति वायु में इस शक्ति को रखनेवाले प्रभु के प्रति नतमस्तक क्यों न होगा ?
भावार्थ -
सूर्य, अन्तरिक्ष, दिन-रात व वायु सभी प्रभु का स्मरण कराते हैं।
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