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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1658
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
ए꣡ह꣢ हरी꣢꣯ ब्रह्म꣣यु꣡जा꣢ श꣣ग्मा꣡ व꣢क्षतः꣣ स꣡खा꣢यम् । इ꣡न्द्रं꣢ गी꣣र्भि꣡र्गिर्व꣢꣯णसम् ॥१६५८॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । इ꣣ह꣢ । हरी꣢꣯इ꣡ति꣢ । ब्र꣣ह्मयु꣡जा꣢ । ब्र꣣ह्म । यु꣡जा꣢꣯ । श꣣ग्मा꣢ । व꣣क्षतः । स꣡खा꣢꣯यम् । स । खा꣣यम् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । गी꣣र्भिः꣢ । गि꣡र्व꣢꣯णसम् । गिः । व꣣नसम् ॥१६५८॥
स्वर रहित मन्त्र
एह हरी ब्रह्मयुजा शग्मा वक्षतः सखायम् । इन्द्रं गीर्भिर्गिर्वणसम् ॥१६५८॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । इह । हरीइति । ब्रह्मयुजा । ब्रह्म । युजा । शग्मा । वक्षतः । सखायम् । स । खायम् । इन्द्रम् । गीर्भिः । गिर्वणसम् । गिः । वनसम् ॥१६५८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1658
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - इन्द्र का प्रभु को प्राप्त करना
पदार्थ -
(इह) = गत मन्त्र में वर्णित सात्त्विक भोजन के द्वारा वीर्य के शरीर में सुरक्षित होने पर हरी इन्द्रियाँ (ब्रह्मयुजा) = ज्ञान से व ज्ञानपुञ्ज ब्रह्म से मेल करानेवाली होती हैं। ये इन्द्रियरूप घोड़े (शग्मा) = सचमुच सुख देनेवाले होते हैं ।
सोमरक्षा से सशक्त हुई हुई इन्द्रियाँ जहाँ परमेश्वर से मेल कराकर निःश्रेयस को सिद्ध करती हैं, वहाँ सांसारिक कार्यों में सफलता प्राप्त करती हुई अभ्युदय को भी प्राप्त करानेवाली होती हैं । श्रेय व प्रेय दोनों की साधक ये इन्द्रियाँ (इन्द्रम्) = अपने अधिष्ठाता जीव को (गीर्भि:) = वेदवाणियों के द्वारा (गिर्वणसम्) = वेदवाणियों द्वारा उपासनीय उस (सखायम्) = निज सखा प्रभु को (आवक्षतः) = प्राप्त कराती हैं। सोमरक्षा के द्वारा जीव सचमुच ‘इन्द्र' बनता है। यह असुरों के संहार की शक्ति से सम्पन्न होता है । इसमें वेदवाणियों को समझने की शक्ति आती है। इन्हें पढ़ने से प्रभु की उपासना होती है। प्रभु की वाणी को पढ़ना प्रभु का आदर ही तो है । इस इन्द्र को उसकी इन्द्रियाँ प्रभु के समीप लेजानेवाली होती हैं ।
भावार्थ -
इन्द्रियाँ इन्द्र को मित्र प्रभु के समीप ले जाती हैं।
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