Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1658
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
34
ए꣡ह꣢ हरी꣢꣯ ब्रह्म꣣यु꣡जा꣢ श꣣ग्मा꣡ व꣢क्षतः꣣ स꣡खा꣢यम् । इ꣡न्द्रं꣢ गी꣣र्भि꣡र्गिर्व꣢꣯णसम् ॥१६५८॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । इ꣣ह꣢ । हरी꣢꣯इ꣡ति꣢ । ब्र꣣ह्मयु꣡जा꣢ । ब्र꣣ह्म । यु꣡जा꣢꣯ । श꣣ग्मा꣢ । व꣣क्षतः । स꣡खा꣢꣯यम् । स । खा꣣यम् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । गी꣣र्भिः꣢ । गि꣡र्व꣢꣯णसम् । गिः । व꣣नसम् ॥१६५८॥
स्वर रहित मन्त्र
एह हरी ब्रह्मयुजा शग्मा वक्षतः सखायम् । इन्द्रं गीर्भिर्गिर्वणसम् ॥१६५८॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । इह । हरीइति । ब्रह्मयुजा । ब्रह्म । युजा । शग्मा । वक्षतः । सखायम् । स । खायम् । इन्द्रम् । गीर्भिः । गिर्वणसम् । गिः । वनसम् ॥१६५८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1658
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा द्वारा जोड़े गए दोनों हरियों के कार्य का वर्णन किया गया है।
पदार्थ
(ब्रह्मयुजा) परमात्मा द्वारा शरीर में जोड़े गए, (शग्मा)सुखदायक वा शक्तिशाली (हरी) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय रूप वा प्राण-अपान रूप दो घोड़े (सखायम्) अपने सखा, (गिर्वणसम्) प्रशस्त वाणियों से सेवित (इन्द्रम्) जीवात्मा को(इह) इस देह-रथ में (गीर्भिः) वाणियों के साथ (आवक्षतः) वहन करते हैं ॥२॥
भावार्थ
जगदीश्वर की ही यह महिमा है कि उसके द्वारा जोड़े गये ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय रूप अथवा प्राण-अपान रूप घोड़े देह-रथ को निर्विघ्न चलाते हैं, जिससे उसमें बैठा हुआ जीव जीवन-यात्रा को करता हुआ योगाभ्यास द्वारा मोक्ष-पद का अधिकारी हो जाता है ॥२॥
पदार्थ
(ब्रह्मयुजा) ब्रह्म—महान् इन्द्र—परमात्मा में युक्त होने वाले—उस तक पहुँचने वाले—(शग्मा) सुखकारी सङ्गम कराने वाले (हरी) परमात्मा को मेरी ओर ले आने वाले ऋक् और साम—स्तुति और उपासना१ (गिर्वणसम्-इन्द्रं गीर्भिः) वाणियों को सेवन करने वाले परमात्मा को प्रार्थनाओं के द्वारा (इह-आवक्षतः) इस मुझ उपासक में या मेरे हृदय में आवाहन करते हैं—ले आते हैं॥२॥
विशेष
<br>
विषय
इन्द्र का प्रभु को प्राप्त करना
पदार्थ
(इह) = गत मन्त्र में वर्णित सात्त्विक भोजन के द्वारा वीर्य के शरीर में सुरक्षित होने पर हरी इन्द्रियाँ (ब्रह्मयुजा) = ज्ञान से व ज्ञानपुञ्ज ब्रह्म से मेल करानेवाली होती हैं। ये इन्द्रियरूप घोड़े (शग्मा) = सचमुच सुख देनेवाले होते हैं ।
सोमरक्षा से सशक्त हुई हुई इन्द्रियाँ जहाँ परमेश्वर से मेल कराकर निःश्रेयस को सिद्ध करती हैं, वहाँ सांसारिक कार्यों में सफलता प्राप्त करती हुई अभ्युदय को भी प्राप्त करानेवाली होती हैं । श्रेय व प्रेय दोनों की साधक ये इन्द्रियाँ (इन्द्रम्) = अपने अधिष्ठाता जीव को (गीर्भि:) = वेदवाणियों के द्वारा (गिर्वणसम्) = वेदवाणियों द्वारा उपासनीय उस (सखायम्) = निज सखा प्रभु को (आवक्षतः) = प्राप्त कराती हैं। सोमरक्षा के द्वारा जीव सचमुच ‘इन्द्र' बनता है। यह असुरों के संहार की शक्ति से सम्पन्न होता है । इसमें वेदवाणियों को समझने की शक्ति आती है। इन्हें पढ़ने से प्रभु की उपासना होती है। प्रभु की वाणी को पढ़ना प्रभु का आदर ही तो है । इस इन्द्र को उसकी इन्द्रियाँ प्रभु के समीप लेजानेवाली होती हैं ।
भावार्थ
इन्द्रियाँ इन्द्र को मित्र प्रभु के समीप ले जाती हैं।
विषय
missing
भावार्थ
(इह) इस पिएड में (ब्रह्मयुजा) ब्रह्य के साथ समाधि द्वारा युक्त होने वाले, (शम्मा) शक्तियुक्त (हरी) दोनों प्राण और अपान (सखायं) परमेश्वर के मित्रभूत (गिर्वणसम्) गिराओं, वेदवाणियों का सेवन करने हारे (इन्द्रम्) इस जीव को (गीर्भिः) स्तुतियों, प्रार्थना और उपासनाओं के साथ साथ (आ वक्षतः) ब्रह्म तक प्राप्त कराते हैं।
टिप्पणी
‘गीर्भिः श्रुतं गीर्वणसम्’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। २ श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। ३ शुनःशेप आजीगर्तः। ४ शंयुर्बार्हस्पत्यः। ५, १५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ९ वसिष्ठः। ७ आयुः काण्वः। ८ अम्बरीष ऋजिश्वा च। १० विश्वमना वैयश्वः। ११ सोभरिः काण्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ कलिः प्रागाथः। १५, १७ विश्वामित्रः। १६ निध्रुविः काश्यपः। १८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। १९ एतत्साम॥ देवता—१, २, ४, ६, ७, ९, १०, १३, १५ इन्द्रः। ३, ११, १८ अग्निः। ५ विष्णुः ८, १२, १६ पवमानः सोमः । १४, १७ इन्द्राग्नी। १९ एतत्साम॥ छन्दः–१-५, १४, १६-१८ गायत्री। ६, ७, ९, १३ प्रागथम्। ८ अनुष्टुप्। १० उष्णिक् । ११ प्रागाथं काकुभम्। १२, १५ बृहती। १९ इति साम॥ स्वरः—१-५, १४, १६, १८ षड्जः। ६, ८, ९, ११-१३, १५ मध्यमः। ८ गान्धारः। १० ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ ब्रह्मयुजोरुभयोर्हर्योः कार्यं वर्णयति।
पदार्थः
(ब्रह्मयुजा) ब्रह्मणा देहे योजितौ (शग्मा) सुखकरौ शक्तौ वा(हरी) ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपौ प्राणापानरूपौ वा अश्वौ(सखायम्) सुहृद्भूतम् (गिर्वणसम्) गीर्भिः प्रशस्ताभिर्वाग्भिः सेवितम्। [गीर्भिः वन्यते सेव्यते इति गिर्वणाः तम्।] (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (इह) देहरूपे रथे (गीर्भिः) वाग्भिः सह(आवक्षतः) आवहतः। [वह प्रापणे, लेटि सिपि अडागमे प्रथमद्विवचने रूपम्] ॥२॥
भावार्थः
जगदीश्वरस्यैवायं महिमा यत्तेन योजितौ ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपौ प्राणापानरूपौ वा घोटकौ देहरथं निरुपद्रवं वहतो येन तत्रस्थो जीवो जीवनयात्रां निर्वहन् योगाभ्यासेन मोक्षपदाधिकारी जायते ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Both Prana and Apana in the body, take to God through prayers, the soul, worthy of being united with God through Samadhi, full of power, and enjoyer of Vedic songs.
Meaning
Let the brave veterans of knowledge and yajnic karma, dedicated to Veda Brahma and humanity, with holy songs of divinity, invoke the most venerable and celebrated lord here on the vedi as our friend and companion. (Rg. 8-2-27)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (ब्रह्मयुजा) બ્રહ્મ-મહાન ઇન્દ્ર-પરમાત્મામા યુક્ત થનાર-તેના સુધી પહોંચનાર, (शग्मा) સુખકારી સંગમ કરાવનાર (हरी) પરમાત્માને મારી તરફ લઈ આવનાર ઋક્ અને સામ સ્તુતિ અને ઉપાસના (गिर्वणसम् इन्द्रं गीर्भिः) વાણીઓનું સેવન કરનાર પરમાત્માનું પ્રાર્થનાઓ દ્વારા (इह आवक्षतः) એ મારામાં - ઉપાસકમાં અથવા મારા હૃદયમાં આવાહન કરીએ છીએ-લઈ આવીએ છીએ. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जगदीश्वराचीच ही महिमा आहे, की त्याने ज्ञानेंद्रिये कर्मेंद्रिये व प्राण-अपानरूपी घोडे देहरूपी रथाला जोडलेले असून, ते निर्विघ्नपणे त्याला चालवितात ज्यामुळे त्यात बसलेला जीव जीवन-यात्रा करत योगाभ्यासाद्वारे मोक्ष-पदाचा अधिकारी बनतो. ॥२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal