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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 168
ऋषिः - प्रियमेधः आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣भि꣡ प्र गोप꣢꣯तिं गि꣣रे꣡न्द्र꣢मर्च꣣ य꣡था꣢ वि꣣दे꣢ । सू꣣नु꣢ꣳ स꣣त्य꣢स्य꣣ स꣡त्प꣢तिम् ॥१६८॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣भि꣢ । प्र । गो꣡प꣢꣯तिम् । गो꣢ । प꣣तिम् । गिरा꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣र्च । य꣡था꣢꣯ । वि꣣दे꣢ । सू꣣नु꣢म् । स꣣त्य꣡स्य꣣ । स꣡त्प꣢꣯तिम् । सत् । प꣣तिम् ॥१६८॥


स्वर रहित मन्त्र

अभि प्र गोपतिं गिरेन्द्रमर्च यथा विदे । सूनुꣳ सत्यस्य सत्पतिम् ॥१६८॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । प्र । गोपतिम् । गो । पतिम् । गिरा । इन्द्रम् । अर्च । यथा । विदे । सूनुम् । सत्यस्य । सत्पतिम् । सत् । पतिम् ॥१६८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 168
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6;
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पदार्थ -

इस मन्त्र के ऋषि ‘प्रियमेध' को धारण करनेवाली बुद्धि ही प्रिय है। ज्ञान-मार्ग पर चलने के कारण विषय-प्रवण न होने से यह 'आङ्गिरस' = शक्तिशाली है।

यह अपने को ही आत्मप्रेरणा [auto-suggestion] के रूप में इस प्रकार कहता है-  (यथा विदे) = जो वस्तु जैसी है उसे वैसा ही समझने के लिए - अर्थात् प्रत्येक वस्तु के तत्त्वज्ञान के लिए (इन्द्रम्) = उस ज्ञानरूप परमैश्वर्य के निधि-भूत प्रभु की (अर्च) = उपासना कर। वे प्रभु (गोपतिम्) = सब वेदवाणियों के पति हैं, (गिरा) = तू वेदवाणियों के ज्ञान के हेतु से इन्हीं के द्वारा अभि प्र उस प्रभु की ओर प्रकर्षेण चल। सदा उस प्रभु के सम्पर्क में रहने का प्रयत्न कर।

वे प्रभु (सत्यस्य सूनुम्)=हृदयस्थ रूप से सदा सत्य की प्रेरणा (सू प्रेरणे) देनेवाले हैं। 
प्रत्येक सृष्टि के प्रारम्भ में 'अग्नि' आदि ऋषियों को वे प्रभु हृदयस्थरूपेण वेदज्ञान दिया करते हैं। ऋषियों में प्रविष्ट उस वेदवाणी को ही समय प्रवाह में हम भी प्राप्त करने के योग्य होते हैं। वे ऋषि श्रेष्ठ व (अरिप्र) = निर्दोष अन्त:करणोंवाले थे। इसीलिए उन्होंने प्रभु के प्रकाश को देखा। हम भी (सत्) = श्रेष्ठ बनें और उस दिव्य प्रकाश को देखनेवाले हों। वे प्रभु (सत्पतिम्) = सयनों के पति=रक्षक हैं। हमारा कर्त्तव्य सयन बनना है| रक्षा का भार तो प्रभु पर है। प्रभु ज्ञान द्वारा हमारी रक्षा करते हैं।

भावार्थ -

उस गोपति की अर्चना कर हम भी गोपति-वेदवाणियों के पति बनें।

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