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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1689
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
1
आ꣡ सो꣢म स्वा꣣नो꣡ अद्रि꣢꣯भिस्ति꣣रो꣡ वारा꣢꣯ण्य꣣व्य꣡या꣢ । ज꣢नो꣣ न꣢ पु꣣रि꣢ च꣣꣬म्वो꣢꣯र्विश꣣द्ध꣢रिः꣣ स꣢दो꣣ व꣡ने꣢षु दध्रिषे ॥१६८९॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । सो꣣म । स्वानः꣢ । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । तिरः꣢ । वा꣡रा꣢꣯णि । अ꣣व्य꣡या꣢ । ज꣡नः꣢꣯ । न । पु꣣रि꣢ । च꣣म्वोः꣢ । वि꣣शत् । ह꣡रिः꣢꣯ । स꣡दः꣢꣯ । व꣡ने꣢꣯षु । द꣣ध्रिषे ॥१६८९॥
स्वर रहित मन्त्र
आ सोम स्वानो अद्रिभिस्तिरो वाराण्यव्यया । जनो न पुरि चम्वोर्विशद्धरिः सदो वनेषु दध्रिषे ॥१६८९॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । सोम । स्वानः । अद्रिभिः । अ । द्रिभिः । तिरः । वाराणि । अव्यया । जनः । न । पुरि । चम्वोः । विशत् । हरिः । सदः । वनेषु । दध्रिषे ॥१६८९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1689
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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विषय - वननीय वस्तुओं में स्थिति
पदार्थ -
५१३ संख्या पर इस मन्त्र का अर्थ इस रूप में दिया गया हैहे (सोम) = सोम ! तू (अद्रिभिः) = अविदारणीय – स्थिर शरीर, मन व मस्तिष्क के द्वारा (आ सुआनः) = सारे शरीर को उत्तमता से प्रीणित करनेवाला है। (तिर:) = सारे रुधिर में छिपा हुआ यह सोम (अव्यया) = रक्षण के हेतु से (वाराणि) = सब रोगों का निवारण करता है । मन को वासनाओं से बचाकर शरीर को नीरोग करता है । (जन: न पुरि) = मनुष्य जैसे नगरी में प्रवेश करता है उसी प्रकार यह सोम (चम्वोः विशत्) = द्यावापृथिवी में, अर्थात् शरीर व मस्तिष्क में प्रवेश करता है । (हरिः) = शरीर में प्रविष्ट होकर शरीर के रोगों का हरण करने से यह ‘हरि' है–मस्तिष्क की कुण्ठा का भी हरण करता है । (सदा उ) = सदा निश्चय से यह सोम हमें (वनेषु) = वननीय – सेवनीय उत्तम वस्तुओं में (दधिषे) = धारण करता है।
भावार्थ -
सोम हमें नीरोग शरीरवाला व उज्ज्वल मस्तिष्कवाला बनाये। ।
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