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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1694
ऋषिः - विश्वामित्रः प्रागाथः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ अ꣡प꣢स꣣स्प꣢꣫र्युप꣣ प्र꣡ य꣢न्ति धी꣣त꣡यः꣢ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ प꣣थ्या꣢३ अ꣡नु꣢ ॥१६९४॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । अ꣡प꣢꣯सः । प꣡रि꣢꣯ । उ꣡प꣢꣯ । प्र । य꣣न्ति । धीत꣡यः । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । प꣣थ्याः꣢ । अ꣡नु꣢꣯ ॥१६९४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राग्नी अपसस्पर्युप प्र यन्ति धीतयः । ऋतस्य पथ्या३ अनु ॥१६९४॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । अपसः । परि । उप । प्र । यन्ति । धीतयः । ऋतस्य । पथ्याः । अनु ॥१६९४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1694
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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विषय - इन्द्र व अग्नि का विकास
पदार्थ -
(धीतयः) = ध्यानशील लोग, अर्थात् जो बहते चले जाने [drifting] की नीति को न अपनाकर अपनी उन्नति का ध्यान करते हैं, वे (ऋतस्य पथ्या अनु) = सत्य व नियमपरायणता [regularity] के मार्ग का अनुसरण करते हुए (अपसः) = स्वार्थ की भावना से ऊपर उठे हुए, व्यापक कर्मों के द्वारा (इन्द्राग्नी) = बल व प्रकाश के तत्त्वों को परि उप (प्रयन्ति) = सर्वथा समीपता से प्राप्त होते हैं । पिछले मन्त्र में ‘इन्द्र और अग्नि' की महिमा का वर्णन किया था कि ये शरीर को सशक्त व
प्रकाशमय बनाते हैं। प्रस्तुत मन्त्र में इन दोनों तत्त्वों के विकास के लिए निम्न उपायों का संकेत किया है ।
१. धीतयः – हम अपने जीवन की उन्नति का ध्यान करनेवाले हों ।
२. ऋतस्य पथ्य अनु– सूर्य और चन्द्रमा की भाँति नियमितता के मार्ग को अपनाएँ। हमारा 'खाना-पीना, सोना-जागना' – सब-कुछ नियमित [regular] हो । यह नियमितता ही तो सत्य है ।
३. अपसः–लोक में हमारे कर्म कुछ स्वार्थ की भावना से ऊपर उठकर किये जाएँ । हमारे कर्म व्यापक मनोवृत्ति से हों ।
उल्लिखित तीन बातों के होने पर ही इन्द्राग्नी का विकास सम्भव है। इन्होंने ही हमारे जीवन को सुभूषित करना है ।
भावार्थ -
मैं ज्ञान व बल की वृद्धि के लिए १. सदा इनके विकास का ध्यान करूँ २. मेरा जीवन नियमित हो तथा ३. मेरे कर्म व्यापक हों ।
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