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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1702
ऋषिः - विश्वामित्रः प्रागाथः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
तो꣣शा꣡ वृ꣢त्र꣣ह꣡णा꣢ हुवे स꣣जि꣢त्वा꣣ना꣡प꣢राजिता । इ꣣न्द्राग्नी꣡ वा꣢ज꣣सा꣡त꣢मा ॥१७०२॥
स्वर सहित पद पाठतो꣣शा꣢ । वृ꣣त्रह꣡णा꣢ । वृ꣣त्र । ह꣡ना꣢꣯ । हु꣣वे । सजि꣡त्वा꣢ना । स꣣ । जि꣡त्वा꣢꣯ना । अ꣡प꣢꣯राजिता । अ । प꣢राजिता । इन्द्राग्नी꣢ । इ꣣न्द्र । अग्नी꣡इति꣢ । वा꣣जसा꣡त꣢मा ॥१७०२॥
स्वर रहित मन्त्र
तोशा वृत्रहणा हुवे सजित्वानापराजिता । इन्द्राग्नी वाजसातमा ॥१७०२॥
स्वर रहित पद पाठ
तोशा । वृत्रहणा । वृत्र । हना । हुवे । सजित्वाना । स । जित्वाना । अपराजिता । अ । पराजिता । इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । वाजसातमा ॥१७०२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1702
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - प्राण व अपान
पदार्थ -
‘इन्द्राग्नी' का एक अर्थ प्राणापान भी है। इस शरीर में जब इन्द्र के सहायक अन्य सब देव सो जाते हैं अथवा कार्य करना बन्द कर देते हैं, ये प्राणापान तब भी अपना कार्य करते रहते हैं। ये जागते रहते हैं—सोते नहीं । मैं इन (इन्द्राग्नी) = प्राणापानों को (हुवे) = पुकारता हूँ – इनकी आराधना करता हूँ, जो
१. (तोशा) = [तुश् to destroy ] शरीर में सब रोग-कृमियों को नष्ट करके मुझे आरोग्य देते हैं । प्राणापान की क्रिया ठीक होने पर शरीर में किसी भी प्रकार का रोग सम्भव ही नहीं और यदि रोगकीटाणु शरीर में प्रविष्ट हो भी जाएँ तो ये उनका संहार कर देते हैं ।
२. (वृत्र-हणा) = ज्ञान की आवरणभूत कामादि वासनाओं को, जो वृत्र कहलाती हैं, ये नष्ट कर देते हैं। प्राणापान की साधना शरीर को नीरोग बनाती है तो मन को वासनारहित ।
३. (सजित्वाना) = एवं, ये प्राणापान शरीर व मन के क्षेत्र में [स] समानरूप से [जित्वाना] विजयशील होते हैं । शरीर के रोगों पर विजय पाते हैं और मन की वासनाओं पर ।
४. (अपराजिता) = ये कभी पराजित नहीं होते। असुर प्राणापान पर आक्रमण करके ऐसे चकनाचूर हो जाते हैं जैसे पत्थर पर टकरा कर मिट्टी का ढेला ।
५. (वाजसातमा) = ये प्राणापान हमें अतिशयित बल देनेवाले हैं। वस्तुत: प्राणापान ही शक्ति हैं। इस प्रकार इन प्राणापान से शक्ति सम्पन्न होकर प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘विश्वामित्र' सभी के साथ स्नेह करता है। घृणा का सिद्धान्त [cult] तो निर्बल का ही होता है ।
भावार्थ -
हम प्राणापान की साधना करें और अपने शरीर व मन दोनों को नीरोग करें ।