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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1707
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
य꣢ उ꣣ग्र꣡ इ꣢व शर्य꣣हा꣢ ति꣣ग्म꣡शृ꣢ङ्गो꣣ न꣡ वꣳस꣢꣯गः । अ꣢ग्ने꣣ पु꣡रो꣢ रु꣣रो꣡जि꣢थ ॥१७०७॥
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । उ꣡ग्रः꣢ । इ꣣व । शर्यहा꣢ । श꣣र्य । हा꣢ । ति꣣ग्म꣡शृ꣢ङ्गः । ति꣣ग्म꣢ । शृ꣣ङ्गः । न꣡ । व꣡ꣳस꣢꣯गः । अ꣡ग्ने꣢꣯ । पु꣡रः꣢꣯ । रु꣣रो꣡जि꣢थ ॥१७०७॥
स्वर रहित मन्त्र
य उग्र इव शर्यहा तिग्मशृङ्गो न वꣳसगः । अग्ने पुरो रुरोजिथ ॥१७०७॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । उग्रः । इव । शर्यहा । शर्य । हा । तिग्मशृङ्गः । तिग्म । शृङ्गः । न । वꣳसगः । अग्ने । पुरः । रुरोजिथ ॥१७०७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1707
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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विषय - त्रि-पुर-घ्न देव
पदार्थ -
प्रभु की शरण में जानेवाला व्यक्ति वह होता है (यः) = जो (उग्रः इव) = उदात्त प्रकृति का होता है । शत्रुओं के साथ भी उसका बर्ताव कमीनेपन का नहीं होता। यह (शर्य-हा) = [शर्य-enemy] अपने आन्तर शत्रुओं को मारनेवाला होता है। (न) = जैसे (तिग्मशृङ्गः) = तेज सींगोवाला (वंसग:) = बैल अपने विरोधी शेर आदि शत्रुओं के पेट का विदारण कर देता है, उसी प्रकार यह प्रभु का उपासक अपने सब शत्रुओं को समाप्त करनेवाला होता है ।
हे अग्ने प्रभु के सम्पर्क से उन्नति को सिद्ध करनेवाले जीव ! तू (पुरः) = शत्रु-नगरियों को (रुरोजिथ) = भग्न कर देता है। काम-क्रोधादि शत्रु ‘इन्द्रियों, मन व बुद्धि को आश्रय करके अपना अधिष्ठान बनाते हैं। ये वस्तुतः इनके क़िले बन जाते हैं - इन क़िलों का तोड़ना ही 'अग्नि' का लक्ष्य होता है। इन तीन पुरियों का भङ्ग करके यह 'त्रिपुरारि' बनता है ।
भावार्थ -
हम उदात्त प्रकृति के बनकर अनुदात्त [निकृष्ट] प्रकृतिवाले शत्रुओं का नाश कर दें।