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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1716
ऋषिः - अवत्सारः काश्यपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
अ꣡स्य꣢ व्र꣣ता꣢नि꣣ ना꣢꣫धृषे꣣ प꣡व꣢मानस्य दू꣣꣬ढ्या꣢꣯ । रु꣣ज꣡ यस्त्वा꣢꣯ पृत꣣न्य꣡ति꣢ ॥१७१६॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡स्य꣢꣯ । व्र꣣ता꣡नि꣢ । न । आ꣣धृ꣡षे꣢ । आ꣣ । धृ꣡षे꣢꣯ । प꣡व꣢꣯मानस्य । दू꣣ढ्या꣢ । रु꣣ज꣢ । यः । त्वा꣣ । पृतन्य꣡ति꣢ ॥१७१६॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य व्रतानि नाधृषे पवमानस्य दूढ्या । रुज यस्त्वा पृतन्यति ॥१७१६॥
स्वर रहित पद पाठ
अस्य । व्रतानि । न । आधृषे । आ । धृषे । पवमानस्य । दूढ्या । रुज । यः । त्वा । पृतन्यति ॥१७१६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1716
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - प्रभु के व्रतों को न तोड़ना
पदार्थ -
अवत्सार निश्चय करता है (अस्य) = इस (पवमानस्य) = पवित्र करनेवाले प्रभु के (व्रतानि) = व्रतों काप्रभु से उपदिष्ट कर्त्तव्यों का – (दूढ्या) = दुर्बुद्धि के कारण (न आधृषे) = मैं धर्षण नहीं करता, अर्थात् मैं प्रभु से उपदिष्ट व्रतों का पालन ही करता हूँ । वस्तुतः मानव-कल्याण तो इन व्रतों के पालन में ही है, परन्तु दुर्बुद्धि के कारण मनुष्य कभी-कभी इन व्रतों को तोड़कर अन्ततः अपना अकल्याण कर बैठता है। सम्पूर्ण भोग्य पदार्थ शरीररक्षा के लिए उपयोज्य हैं, परन्तु मनुष्य स्वाद के कारण उनका अतिमात्र सेवन करता है और नाना प्रकार की आधि-व्याधियों में फँस जाता है। प्रभु ने मनुष्य को भुजाएँ दीं, वेद में उनका 'बाहु' नाम रखा और संकेत किया कि तूने सदा [बाह प्रयत्ने] प्रयत्नशील बनना, परन्तु जीव कर्मशीलता के व्रत को छोड़कर आराम पसन्द हो गया । उसे ('कुर्वन्नेवेह कर्माणि') = उपदेश भूल गया। प्रभु ने 'भोजन' शब्द का अर्थ ही यह बतलाया था कि जो पालन के लिए ‘अभ्यवहृत’ हो [भुज पालनाभ्यवहारयोः], परन्तु मनुष्य उसे स्वाद के लिए खाने लगा। इस प्रकार मनुष्य ने इस पवमान प्रभु के उपदिष्ट शतशः व्रतों को तोड़ा | अब इन व्रत-भङ्गों के परिणामस्वरूप कष्ट आने पर जब जीव व्याकुल हुआ और प्रभु की ओर झुका तब प्रभु उसे फिर कहते हैं= हे जीव ! (यः) = जो भी शत्रु (त्वा) = तुझे (पृतन्यति) = आक्रान्त करता है, तू (रुज) उसे भङ्ग करने का प्रयत्न कर। काम, क्रोध व लोभ – जिसका भी तुझपर आक्रमण हो तू उसे जीतने का प्रयत्न कर । बस, इसी में तेरा कल्याण है ।
भावार्थ -
हम प्रभु के व्रतों को न तोड़ें। आक्रान्ता शत्रुओं का पराजय करें।
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