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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1719
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
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वृ꣣त्रखादो꣡ व꣢लꣳ रु꣣जः꣢ पु꣣रां꣢ द꣣र्मो꣢ अ꣣पा꣢म꣣जः꣢ । स्था꣢ता꣣ र꣡थ꣢स्य꣣ ह꣡र्यो꣢रभिस्व꣣र꣡ इन्द्रो꣢꣯ दृ꣣ढा꣡ चि꣢दारु꣣जः꣢ ॥१७१९॥

स्वर सहित पद पाठ

वृ꣣त्रखादः꣢ । वृ꣣त्र । खादः꣢ । व꣣लꣳरुजः꣢ । व꣣लम् । रुजः꣢ । पु꣣रा꣢म् । द꣣र्मः꣢ । अ꣣पा꣢म् । अ꣣जः꣢ । स्था꣡ता꣢꣯ । र꣡थ꣢꣯स्य । ह꣡र्योः꣢꣯ । अ꣣भिस्वरे꣢ । अ꣣भि । स्वरे꣢ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । दृ꣣ढा꣢ । चि꣣त् । आरुजः꣢ । आ꣣ । रुजः꣢ ॥१७१९॥


स्वर रहित मन्त्र

वृत्रखादो वलꣳ रुजः पुरां दर्मो अपामजः । स्थाता रथस्य हर्योरभिस्वर इन्द्रो दृढा चिदारुजः ॥१७१९॥


स्वर रहित पद पाठ

वृत्रखादः । वृत्र । खादः । वलꣳरुजः । वलम् । रुजः । पुराम् । दर्मः । अपाम् । अजः । स्थाता । रथस्य । हर्योः । अभिस्वरे । अभि । स्वरे । इन्द्रः । दृढा । चित् । आरुजः । आ । रुजः ॥१७१९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1719
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

१. (वृत्रखादः) = वृत्र का यह खा-जानेवाला होता है। यह वासना को कुचल डालता है। वासना ज्ञान पर पर्दा डाल देती है, अत: यह वृत्र कहलाती है । इन्द्र इसको उसी प्रकार छिन्न-भिन्न कर देता है जैसे सूर्य मेघ को । सूर्य 'इन्द्र' है तो 'वृत्र' मेघ ।

२. (वलं रुजः) = यह वल को नष्ट कर देता है । इन्द्र का एक नाम 'वलभित्' है । वस्तुतः 'वल' देवता है, जब तक कि यह निर्बलों के रक्षण में विनियुक्त होता है, परन्तु जब यह दूसरों के उत्पीड़न में विनियुक्त होता है तब यह राक्षस बन जाता है । इन्द्र इस राक्षस का विदारण करने के कारण ‘वलभित्' कहलाता है। मनुष्य को बल के गर्व में कभी भी न्याय का गला नहीं घोंटना चाहिए। यदि वह ऐसा करता है तो वह 'वलभित्' नहीं, बल्कि बल के मद से पराजित हो जाता है ।

३. (पुरां दर्मः) = जीव को प्रभु ने निवास के लिए पाँच कोश व तीन शरीर दिये हैं—ये ही इसके पुर हैं। वस्तुत: यह इन पुरों के अन्दर बँधा हुआ है। इसने 'दमन, दान व दया' की साधना करके इन बन्धनों को तोड़ना है । इसी बात को यहाँ इस रूप में कहा गया है कि यह पुराम्=पुरों का दर्म:= विदारण करनेवाला होता है ।

४. (अपाम् अजः) = यह सदा व्यापक कर्मों में [आप् व्याप्तौ] गतिशील होता है। हमारे कर्म दो प्रकार के होते हैं—एक स्वार्थपूर्ण और दूसरे स्वार्थरहित । जो कर्म जितना जितना स्वार्थ से रहित होता है वह उतना उतना व्यापक होता है । यह इन्द्र सदा इन व्यापक कर्मों में ही व्याप्त रहता है ।

५. यह इन्द्र (रथस्य) = जीवन-यात्रा के लिए दिये गये शरीररूप रथ के (हर्यो:) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप घोड़ों पर (स्थाता) = अधिष्ठित होता है । यह सदा उनपर क़ाबू पाये रहता है, उनके क़ाबू नहीं हो जाता । जीवनन - यात्रा को पूर्ण करने के लिए यह आवश्यक है, अन्यथा यात्रा की पूर्ति सम्भव है ही नहीं । बेकाबू घोड़े तो किसी गड्ढे में ही गिरा देंगे ।

६. अभिस्वरः=यह इन्द्र अपने जीवन में उपर्युक्त पाँचों बातों को लाने के लिए सदा प्रभु के नामों का उच्चारण करनेवाला होता है, [ स्वृ शब्दे ] । यही प्रभु-नामोच्चारण उसे प्रेरणा व उत्साह प्राप्त कराता है। इसी से वह अपने में एक शक्ति अनुभव करता है ।

७. अब यह (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव (दृढाचित्) = दृढ़-से-दढ़ विषय-बन्धनों को (आरुज:) = समन्तात् छिन्न-भिन्न कर डालता है, इनका ग़ुलाम नहीं बना रहता । विषय ‘ग्रह' हैं— इन्होंने जीव को बुरी तरह से जकड़ा हुआ है, यह उनकी जकड़ से छूट जाता है ।

भावार्थ -

हमें चाहिए कि इन्द्र के उल्लिखित सात लक्षणों को अपने जीवन में अनूदित करने का प्रयत्न करें।

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