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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1718
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
2
आ꣢ म꣣न्द्रै꣡रि꣢न्द्र꣣ ह꣡रि꣢भिर्या꣣हि꣢ म꣣यू꣡र꣢रोमभिः । मा꣢ त्वा꣣ के꣢ चि꣣न्नि꣡ ये꣢मु꣣रि꣢꣫न्न पा꣣शि꣢꣫नोऽति꣣ ध꣡न्वे꣢व꣣ ता꣡ꣳ इ꣢हि ॥१७१८॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । म꣣न्द्रैः꣢ । इ꣣न्द्र । ह꣡रि꣢꣯भिः । या꣣हि꣢ । म꣣यू꣡र꣢रोमभिः । म꣣यू꣡र꣢ । रो꣣मभिः । मा꣢ । त्वा꣣ । के꣢ । चि꣣त् । नि꣢ । ये꣣मुः । इ꣢त् । न । पा꣣शि꣡नः꣢ । अ꣡ति꣢꣯ । ध꣡न्व꣢꣯ । इ꣣व । ता꣢न् । इ꣣हि ॥१७१८॥
स्वर रहित मन्त्र
आ मन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि मयूररोमभिः । मा त्वा के चिन्नि येमुरिन्न पाशिनोऽति धन्वेव ताꣳ इहि ॥१७१८॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । मन्द्रैः । इन्द्र । हरिभिः । याहि । मयूररोमभिः । मयूर । रोमभिः । मा । त्वा । के । चित् । नि । येमुः । इत् । न । पाशिनः । अति । धन्व । इव । तान् । इहि ॥१७१८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1718
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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विषय - रेगिस्तान का लाँघना
पदार्थ -
मन्त्र संख्या २४६ पर इसका विचार हो चुका है। सरलार्थ यह हैप्रभु कहते हैं—हे (इन्द्र)=जीवात्मन्! (मन्द्रैः) = आह्लादमय (मयूररोमभिः) = दुष्टवृत्तियों के नाशक प्रभुवाचक शब्दों का उच्चारण करनेवाली (हरिः) = हरणशील चित्तवृत्तियों से (आयाहि) = तू मेरे समीप आ। (त्वा) = तुझे (केचित्) = ये कोई भी विषय (मा नियेमुः) = मत रोक लें । (इत्) = निश्चय से (पाशिनः न) = ये विषय पाशवालों की भाँति हैं, ये तुझे बाँध लेंगे । तू (तान्) = इन विषयों को (धन्वा इव) = मरुस्थल की भाँति (अति इहि) = लाँघ जा । रेगिस्तान के मृगतृष्णा के दृश्य की भाँति ये आकर्षक हैं, परन्तु कभी प्यास को बुझानेवाले नहीं । जो इनमें फँसता नहीं वही 'विश्वामित्र'=सभी का मित्र बन पाता है, इनमें फँसनेवाला तो 'विषयमित्र' हो जाता है ।
भावार्थ -
हम आह्लादमयी प्रभु-नामोच्चारण करनेवाली चित्तवृत्तियों से प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनें ।
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