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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 173
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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भ꣣द्रं꣡भ꣢द्रं न꣣ आ꣢ भ꣣रे꣢ष꣣मू꣡र्ज꣢ꣳ शतक्रतो । य꣡दि꣢न्द्र मृ꣣ड꣡या꣢सि नः ॥१७३॥
स्वर सहित पद पाठभ꣣द्र꣡म्भ꣢द्रं । भ꣣द्रम् । भ꣣द्रम् । नः । आ꣢ । भ꣣र । इ꣡ष꣢꣯म् । ऊ꣡र्ज꣢꣯म् । श꣣तक्रतो । शत । क्रतो । य꣢त् । इ꣣न्द्र । मृड꣡या꣢सि । नः꣣ ॥१७३॥
स्वर रहित मन्त्र
भद्रंभद्रं न आ भरेषमूर्जꣳ शतक्रतो । यदिन्द्र मृडयासि नः ॥१७३॥
स्वर रहित पद पाठ
भद्रम्भद्रं । भद्रम् । भद्रम् । नः । आ । भर । इषम् । ऊर्जम् । शतक्रतो । शत । क्रतो । यत् । इन्द्र । मृडयासि । नः ॥१७३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 173
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6;
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विषय - सात्त्विक भोजन
पदार्थ -
पिछले मन्त्र में ज्ञानाश्रित मार्ग के अवलम्बन का उल्लेख हुआ है। ज्ञान बुद्धि से होता है और उसकी उत्तमता सात्त्विक भोजन पर निर्भर करती है, अतः इस मन्त्र में सात्त्विक भोजन का उल्लेख है । हे (शतक्रतो) = सैकड़ों प्रज्ञानोंवाले (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! मैं भी सौ वर्ष तक उत्तम ज्ञानवाला बना रहूँ और ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाला बन सकूँ, इसके लिए आप (नः)=हमें (भद्रंभद्रम्)=अत्यन्त कल्याण व सुखकर( इषम्)=अन्न व (ऊर्जम्)=रस को अर्थात् सात्त्विक खान-पान को (आभर) = सब ओर से प्राप्त कराइए | इस सात्त्विक भोजन पर ही बुद्धि की सात्त्विकता निर्भर है। ('आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः) = भोजन के शुद्ध होने पर सत्त्व अर्थात् अन्तःकरण भी शुद्ध होता है । मन्त्र की समाप्ति पर कहते हैं कि हे इन्द्र ! (यत्) = यदि आप (नः)=हमें (मृडयासि)=सुखी करना चाहते हैं तो हमें शुद्ध बुद्धि के साधनभूत उत्तम अन्न और रसों की प्राप्ति कराइए ।
इस मन्त्र का ऋषि ज्ञान को धारण करनेवाला 'श्रुतकक्ष', उत्तम शरणवाला 'सुकक्ष', शक्तिशाली ‘आङ्गिरस' यह समझ लेता है कि वह द्रव्य अभक्ष्य है जो बुद्धि को लुप्त करता है। बुद्धि को सात्त्विक बनानेवाले भोजनों का ही सेवन करता हुआ यह सचमुच 'श्रुतकक्ष' बनता है।
भावार्थ -
सात्त्विक आहार के सेवन से हम सात्त्विक बुद्धि का सम्पादन करें।
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