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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 174
ऋषिः - बिन्दुः पूतदक्षो वा आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣢स्ति꣣ सो꣡मो꣢ अ꣣य꣢ꣳ सु꣣तः꣡ पि꣢꣯बन्त्यस्य म꣣रु꣡तः꣢ । उ꣣त꣢ स्व꣣रा꣡जो꣢ अ꣣श्वि꣡ना꣢ ॥१७४॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡स्ति꣢꣯ । सो꣡मः꣢꣯ । अ꣣य꣢म् । सु꣣तः꣢ । पि꣡ब꣢꣯न्ति । अ꣣स्य । मरु꣡तः꣢ । उ꣣त꣢ । स्व꣣रा꣡जः꣢ । स्व꣣ । रा꣡जः꣢꣯ । अ꣣श्वि꣡ना꣢ ॥१७४॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्ति सोमो अयꣳ सुतः पिबन्त्यस्य मरुतः । उत स्वराजो अश्विना ॥१७४॥
स्वर रहित पद पाठ
अस्ति । सोमः । अयम् । सुतः । पिबन्ति । अस्य । मरुतः । उत । स्वराजः । स्व । राजः । अश्विना ॥१७४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 174
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6;
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विषय - उत्पन्न शक्ति की रक्षा
पदार्थ -
गत मन्त्रों में सात्त्विक बुद्धि के लिए सात्त्विक आहार के सेवन का विधान है। इससे भी बढ़कर महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उस भोजन से उत्पन्न शक्ति की रक्षा की जाए। यह सुरक्षित शक्ति ही ज्ञानाग्नि का ईंधन बनती है और बुद्धि को तीव्र करती है। इसी से इस मन्त्र का ऋषि शक्ति-रक्षा के महत्त्व को समझता हुआ अपने को शक्ति का पुञ्ज बनकर 'बिन्दु' कहलाता है। बिन्दु का अभिप्राय शक्ति के बूँद व कण हैं, यह शक्ति के एक भी कण को नष्ट नहीं होने देता। इसी उद्देश्य से यह अपनी शक्ति को पवित्र विचारों से पवित्र ही बनाये रखता है और 'पूतदक्ष' कहलाता है। शक्ति की रक्षा से यह शक्तिशाली बनकर 'आङ्गिरस' है। यह कहता है कि सात्त्विक भोजन से (अयम्) = यह (सोमः) = वीर्यशक्ति (सुतः अस्ति) = उत्पन्न हो गई है। अब हमें इसकी रक्षा करनी है। इसकी रक्षा का उपाय एक ही है कि इसको शरीर में ही खपा दिया जाए। वैदिक भाषा में इसे ही 'सोम का पान' कहते हैं। (अस्य पिबन्ति)= इसका पान किया करते हैं
१.(मरुतः) = मरुत् (उत्)= और (स्वराजः) = स्वराट् और (अश्विना) = अश्वी लोग। १. मरुतः=मरुत् शब्द प्राणों के लिए प्रयुक्त होता है। यहाँ उन मनुष्यों को 'मरुतः' शब्द से स्मरण किया है जो प्राणों की साधना में लगे हैं। प्राणायाम वस्तुतः शक्ति-संयम का मुख्य साधन है। यह मनुष्य को ऊर्ध्वरेतस् बनने में सहायक होता है। शक्ति की ऊर्ध्वगति होकर ही वह ज्ञानाग्नि का ईंधन बनती है और बुद्धि को तीव्र करती है।
२. (स्वराजः) =अपने जीवन को बड़ा नियमित बनानेवाला । सूर्य और चन्द्रमा की भाँति यदि हमारी सब प्राकृतिक क्रियाएँ बड़ी नियमित चलती हैं तो ये शक्ति-संयम में सहायक होती हैं।
३. (अश्विना)=[न श्व अस्य अस्ति] जो कल का जप नहीं करता, अर्थात् जो सतत क्रियाशील है। वस्तुतः क्रियाशीलता वासना को अपने से दूर रखने के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
एवं शक्ति के संयम के तीन साधन हैं- १. प्राणों की साधना, २. दिनचर्या की नियमितता और ३. कार्य-सातत्य [ समारम्भ] ।
भावार्थ -
हम शक्ति का संयम करके अपनी ज्ञानाग्नि को दीप्त करें।
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