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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1741
ऋषिः - सत्यश्रवा आत्रेयः
देवता - उषाः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
1
या꣡ सु꣢नी꣣थे꣡ शौ꣢चद्र꣣थे꣡ व्यौच्छो꣢꣯ दुहितर्दिवः । सा꣡ व्यु꣢च्छ꣣ स꣡ही꣢यसि स꣣त्य꣡श्र꣢वसि वा꣣य्ये꣡ सुजा꣢꣯ते꣣ अ꣡श्व꣢सूनृते ॥१७४१॥
स्वर सहित पद पाठया꣢ । सु꣣नीथे꣢ । सु꣣ । नीथे꣢ । शौ꣣चद्रथे꣢ । शौ꣣चत् । रथे꣢ । व्यौ꣡च्छः꣢꣯ । वि꣣ । औ꣡च्छः꣢꣯ । दु꣣हितः । दिवः । सा꣢ । वि । उच्छ । स꣡ही꣢꣯यसि । स꣣त्य꣡श्र꣢वसि । स꣣त्य꣢ । श्र꣣वसि । वाय्ये꣢ । सु꣡जा꣢꣯ते । सु । जा꣣ते । अ꣡श्व꣢꣯सू꣣नृते । अ꣡श्व꣢꣯ । सू꣣नृते ॥१७४१॥
स्वर रहित मन्त्र
या सुनीथे शौचद्रथे व्यौच्छो दुहितर्दिवः । सा व्युच्छ सहीयसि सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसूनृते ॥१७४१॥
स्वर रहित पद पाठ
या । सुनीथे । सु । नीथे । शौचद्रथे । शौचत् । रथे । व्यौच्छः । वि । औच्छः । दुहितः । दिवः । सा । वि । उच्छ । सहीयसि । सत्यश्रवसि । सत्य । श्रवसि । वाय्ये । सुजाते । सु । जाते । अश्वसूनृते । अश्व । सूनृते ॥१७४१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1741
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - किनका अन्धकार दूर होता है
पदार्थ -
हे (दिवः दुहितः) = प्रकाश का पूरण करनेवाली उषे! (या) = जो तू (सुनीथे) = प्रशस्त मार्ग पर चलनेवाले में— इन्द्रियों को विषयपंक में न फँसने देनेवाले में तथा (शौचद्रथे) = देदीप्यमान रथवाले में, स्वास्थ्य को स्थिर रखने के द्वारा चमकते हुए तेजस्वी शरीररूप रथवाले पुरुष में (व्यौच्छः) = अन्धकार को दूर करती हैं; (सा) = वह तू निम्न पुरुषों में भी (व्युच्छ) = अन्धकार को दूर कर
१. (सहीयसि) = उत्तम सहन शक्तिवाले पुरुष में । आनन्दमय कोष के बल को सहस् कहते हैं ।
इस सहस् से युक्त पुरुष में अज्ञानान्धकार का निवास नहीं होता ।
२. (सत्यश्रवसि) = सदा सत्यज्ञान का श्रवण करनेवाले में। जो व्यक्ति सत्सङ्ग के द्वारा उत्तम वेदज्ञान का श्रवण करता है, उसमें अज्ञानान्धकार का प्रसङ्ग नहीं रहता।
३. (वाय्ये) = जो अपने हृदय को विस्तृत बनाता है।
४. (सुजाते) = जो अपना उत्तम विकास करता है ।
५. (अश्वसूनृते) = व्यापक उत्तम दुःखनाशक न्याय्य कर्म करनेवाले में । उल्लिखित व्यक्तियों के आज्ञानान्धकार का उषा नाश करती है । वस्तुतः प्रातः काल उठकर हम इन शब्दों के अनुसार अपना जीवन बनाने का प्रयत्न करेंगे तो हम अवश्य अज्ञानान्धकार को नष्ट करके उस प्रकाश में पहुँचेंगे जहाँ हम प्रभु का साक्षात्कार कर रहे होंगे।
भावार्थ -
हम उत्तममार्ग से चलनेवाले, देदीप्यमान शरीररूप रथवाले, सहनशील, विशाल हृदय, उत्तम विकासवाले तथा व्यापक सत्य कर्मोंवाले बनें । ऐसा बनने पर ही हमारा अज्ञानान्धकार विलीन हो पाएगा।
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