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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1773
ऋषिः - प्रियमेध आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
य꣡स्य꣢ ते महि꣣ना꣢ म꣣हः꣡ परि꣢꣯ ज्मा꣣य꣡न्त꣢मी꣣य꣡तुः꣢ । ह꣢स्ता꣣ व꣡ज्र꣢ꣳ हिर꣣ण्य꣡य꣢म् ॥१७७३॥
स्वर सहित पद पाठय꣡स्य꣢꣯ । ते꣣ । महिना꣢ । म꣣हः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । ज्मा꣣य꣡न्त꣢म् । ई꣣य꣡तुः꣢ । ह꣡स्ता꣢꣯ । व꣡ज्र꣢꣯म् । हि꣣रण्य꣡य꣢म् ॥१७७३॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य ते महिना महः परि ज्मायन्तमीयतुः । हस्ता वज्रꣳ हिरण्ययम् ॥१७७३॥
स्वर रहित पद पाठ
यस्य । ते । महिना । महः । परि । ज्मायन्तम् । ईयतुः । हस्ता । वज्रम् । हिरण्ययम् ॥१७७३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1773
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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विषय - व्यापक व प्रकाशमय क्रिया
पदार्थ -
प्रियमेध कहता है कि हे प्रभो ! मैं उन आपका स्मरण करता हूँ (महिना महः) = महिमा से महान् (यस्य ते) = जिस आपके (हस्ता) = हाथ (परिज्यायन्तम्) = चारों ओर सम्पूर्ण पृथिवी को अपनानेवाले (हिरण्ययम्) = ज्योतिर्मय (वज्रम्) = क्रियाशीलता को [वज गतौ] (ईयतुः) = प्राप्त होते हैं ।
प्रभु की महिमा महान् है । जितना- जितना मैं संसार में भ्रमण करता हूँ, उतना उतना आपकी महिमा से मेरा मन प्रभावित होता है। मेरी दृष्टि में आप अधिक और अधिक महान् होते जाते हैं । आपके हाथ निरन्तर क्रियाशील हैं— आपकी क्रिया स्वाभाविक है – वह किसी निजी प्रयोजन को लेकर नहीं हो रही । आपकी सारी क्रियाएँ जीवहित के लिए हैं। वे क्रियाएँ सारी पृथिवी को व्यापनेवाली हैं। उन क्रियाओं में बुद्धिमत्ता व प्रकाश झलक रहा है। आपकी क्रियाएँ सर्वव्यापक और प्रकाशमय हैं । आपकी एक-एक क्रिया आपकी महिमा को प्रकट कर रही है। आपकी एक-एक रचना को देखकर मैं आश्चर्य-निमग्न हो जाता हूँ। आपकी प्रत्येक रचना बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण प्रतीत होती है।
भावार्थ -
मैं आपकी रचना को बारीकी से देखूँ और आपकी महिमा का अनुभव करूँ । इस महिमा के दर्शन से प्रेरित होकर मैं भी अपनी क्रियाओं को व्यापक व प्रकाशमय बनाऊँ ।
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